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✍ डॉ. मो. वासे ज़फ़र
इंसानियत (मानवता) की हिदायत (मार्गदर्शन) के लिए, अल्लाह रब्बुल-‘इज़्ज़त (सर्वशक्तिमान)
ने दो श्रृंखलाएं जारी कीं;
एक तो पैग़म्बरों (Prophets) के भेजने का सिलसिला जारी
किया और दूसरे अपनी किताबों (धर्मग्रंथों) और सहीफ़ों (धर्म पुस्तिकाओं) को उन पर नाज़िल
(अवतरित) किया। पैग़म्बरों (صلوات اللہ تعالی علیھم اجمعین) की
यह ज़िम्मेदारी हुआ करती थी कि वे किताब-ए-इलाही (ईश्वरीय ग्रंथ) के प्रकाश में लोगों
को अल्लाह की ओर बुलाएं, उन्हें अल्लाह-ईश्वर के अहकाम
(आदेशों) से अवगत कराएं और ख़ुद भी उन नाज़िल-शुदा (अवतरित) आदेशों पर मंशा-ए-इलाही
(ईश्वरेच्छा या ख़ुदा की मर्ज़ी) के अनुसार चल कर लोगों के लिए ‘अमली नमूना (व्यावहारिक
उदाहरण) प्रस्तुत करें। नबियों (Prophets) के निधन के बाद, यह ज़िम्मेदारी पूरी तरह से उम्मत (धर्म समुदाय) के विद्वानों
(‘उलमा) पर आ जाती थी। लगभग
सभी उम्मतों (धर्म समुदायों) में यही स्थिति रही। पैग़म्बरों की मौजूदगी तक तो उपरोक्त
सभी जिम्मेदारियां और दीन (धर्म) के सभी मामले अपने मूल स्थान या स्थिति में बने रहते, लेकिन उनके निधन के बाद, अक्सर (प्रायः) ऐसा होता कि
विद्वानों (Religious
Scholars) का एक बड़ा वर्ग किताब-ए-इलाही पर अपना आधिपत्य (क़ब्ज़ा) जमा
कर बैठ जाता, लोगों से अल्लाह के आदेशों
को छिपाता, यहां तक कि कुछ सिक्कों
की ख़ातिर उनमें फेर-बदल कर देता, और लोग उनके द्वारा की गई हर तहरीफ़ (विकृति) को स्वीकार भी
कर लेते थे क्योंकि वे ख़ुदा की किताब या सहीफ़े से काट दिए जाने की वजह से ख़ुद
उनसे अनभिज्ञ होते थे। इस प्रकार धर्म (दीन) अपनी मूल अवस्था में नहीं रह जाता था।
इस स्थिति का क़ुरआन ने इन शब्दों में चित्रण किया है:
وَاِذْ اَخَذَ اللّٰهُ مِيْثَاقَ الَّذِيْنَ اُوْتُوا
الْكِتٰبَ لَتُبَيِّنُنَّهٗ لِلنَّاسِ وَلَاتَكْتُمُوْنَهٗ ۡ فَنَبَذُوْهُ
وَرَاۗءَ ظُهُوْرِھِمْ وَاشْتَرَوْا بِهٖ ثَمَـــنًا قَلِيْلًا ۭ فَبِئْسَ مَا يَشْتَرُوْنَ ◌ (آل عمران: 187)
"और अल्लाह
ने जब अहल-ए-किताब (किताब वालों) से यह ‘अहद (वादा) लिया कि तुम इस किताब को लोगों
के सामने ज़रूर खोल-खोलकर (यानी स्पष्ट तौर पर) बयान करोगे, और इसको छुपाओगे नहीं, तो
फिर भी उन्होंने इस ‘अहद (वादे) को पीठ पीछे डाल दिया (अर्थात उस से मुकर गए) और थोड़ी
क़ीमत पर उसे बेच डाला। कितना बुरा कारोबार है जो ये लोग कर रहे हैं!" [पवित्र
क़ुरआन, सूरह आलि-‘इमरान 3: 187]
ऐसे आलिमों (विद्वानों) पर अल्लाह ने इन शब्दों
में ला’नत (अभिशाप) किया है:
اِنَّ
الَّذِيْنَ يَكْتُمُوْنَ مَآ اَنْزَلْنَا مِنَ الْبَيِّنٰتِ وَالْهُدٰى مِنْۢ
بَعْدِ مَا بَيَّنّٰهُ لِلنَّاسِ فِي الْكِتٰبِ ۙ اُولٰۗىِٕكَ يَلْعَنُهُمُ
اللّٰهُ وَيَلْعَنُهُمُ اللّٰعِنُوْنَ ◌ (البقرۃ: 159)
"बेशक वे लोग जो हमारी नाज़िल (अवतरित) की
हुई रौशन दलीलों (स्पष्ट प्रमाणों) और हिदायतों (अनुदेशों) को छुपाते हैं, इसके बावजूद कि हम उन्हें
किताब में खोल-खोलकर लोगों (की रहनुमाई) के लिये बयान कर चुके हैं, तो ऐसे लोगों पर अल्लाह भी
ला’नत भेजता है और दूसरे ला’नत करने वाले भी ला’नत भेजते हैं।" [पवित्र क़ुरआन, सूरह अल-बक़रह 2: 159]
उपरोक्त कारकों (Factors) के कारण, जब मुहम्मद (ﷺ) को पैग़म्बर बना
कर भेजा गया और उन पर क़ुरआन का नुज़ूल (अवतरण) हुआ तो अल्लाह रब्बुल-‘इज़्ज़त ने उसकी हिफ़ाज़त (रक्षा)
की ज़िम्मेदारी (उत्तरदायित्व) ख़ुद अपने ऊपर ले ली और इस प्रकार के साधन एवं स्रोत
रचित किए कि उसे तहरीफ़ात (विकृतियों या फेरबदल) से पूरी तरह सुरक्षित कर दिया। क़ुरआन
में ईश्वरीय कथन है:
إِنَّا نَحْنُ نَزَّلْنَا الذِّكْرَ
وَإِنَّا لَهُ لَحٰفِظُوۡنَ ◌ (الحجر: 9)
(अर्थ): "बेशक हमने ही इस ज़िक्र (स्मरण अर्थात
क़ुरआन) को नाज़िल (अवतरित) किया है और हम ही इसके संरक्षक (हिफ़ाज़त करने वाले) हैं।"
[पवित्र क़ुरआन, सूरह अल-हिज्र 15: 9]
इस तरह क़ुरआन के शब्दों की हिफ़ाज़त तो यक़ीनी तौर
पर हो गई, लेकिन उनके अर्थों में फेरबदल
अर्थात ग़लत अर्थ निरूपण (Misinterpretation)
की गुंजाइश (संभावना) बनी
रही। अल्लाह त’आला ने इसका भी इंतिज़ाम (प्रबंध) किया कि हर युग में हक़-परस्त (सत्यनिष्ठ)
‘उलमा (विद्वानों) का एक समूह
मौजूद रहा जिसने क़ुरआन के शब्दार्थ विरूपण (मा’नवी तहरीफ़) पर अपनी नज़र रखी, इस लिए जब भी कोई विधर्मी (Heretic) या विचलनवादी (Deviationists), क़ुरआन के शब्दों के अर्थ को विकृत करने की कोशिश करता है, तो हक़-परस्त ‘उलमा उसकी समीक्षा करते हैं
और उसे हक़ (सत्य) की ओर फेर देते हैं।
इसके साथ ही जब कुछ विचलनवादियों ने हदीसों और पैग़म्बर
मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम (स.अ.व.) की सुन्नतों (जीवन शैली) में अपनी मौज़ू’आत
(गढ़ी हुई रिवायतों) के ज़रिए (द्वारा) मिलावट एवं छेड़छाड़ करने की कोशिश की तो अल्लाह
ने मुख़्लिस (निष्ठावान) मुहद्दिसीन (हदीस के विशेषज्ञों) की एक जमा’अत (वर्ग) को खड़ा कर दिया जिन्होंने न केवल हदीसों को इकट्ठा
किया बल्कि हदीस के रावियों (कथावाचकों) का जीवनवृत्त भी तैयार किया, उनके विश्वसनीय (ثقہ) या अविश्वसनीय
(غیرثقہ) होने
को स्पष्ट किया और हदीसों की जाँच-पड़ताल के लिए ऐसे सिद्धांत (اصول) स्थापित किए जिनके
आधार पर हदीस-ए-मुतवातिर (अनवरत रिवायत जिसके रावियों की कई अलग अलग शृंखलाएँ हों)
और हदीस-ए-आहाद (व्यक्तिगत पृथक आख्यानों द्वारा समर्थित रिवायत) तथा मक़बूल (स्वीकृत)
अर्थात सही (प्रामाणिक) एवं हसन और मरदूद (अस्वीकृत) अर्थात ज़ईफ़ एवं मौज़ू’
(गढ़ी हुई) रिवायतों को आसानी से पहचाना जा सकता है। इस तरह हदीस और सुनन (‘सुन्नत’ का बहुवचन) को भी अल्लाह ने सुरक्षित कर दिया।
अब बिगाड़ की एक तीसरी शक्ल (रूप) यह है कि किताब-ए-इलाही
(ख़ुदा की किताब) और पैग़म्बर मुहम्मद (ﷺ) की सुन्नतों को
लोगों तक पहुंचाने के बजाए उनसे रोका जाए। यह भी कितमान-ए-’इल्म (‘इल्म को छुपाने) की
ही एक सूरत (शक्ल) है। क़ुरआन और अहादीस (‘हदीस’ का बहुवचन) के ‘अरबी (Arabic) में होने के कारण ‘अजमियों
(ग़ैर-‘अरब) की पहुँच वैसे भी उनके शब्दों तक ही सीमित है, इल्ला-माशा-अल्लाह (अर्थात
कुछ अपवाद को छोड़कर)! इसलिए, जब कुछ मुख़्लिस ‘उलमा-ए-दीन (धार्मिक विद्वानों) को इस बात
की चिंता हुई कि क़ुरआन और अहादीस की शिक्षाओं को ‘आम लोगों तक कैसे पहुँचाया जाए, तो वे उनके तर्जमे (अनुवाद)
और तफ़्सीर (व्याख्या) की ओर मुतवज्जह हुए। लेकिन ‘उलमा (Religious
Scholars) के एक वर्ग द्वारा उनका कड़ा विरोध किया गया, हालांकि यह हक़ीक़त (तथ्य) उनके सामने ज़रूर रही
होगी कि अल्लाह ने जिस भी पैग़म्बर को दुनिया में भेजा, उसे अपनी क़ौम की भाषा में
ही भेजा। ईश्वरीय कथन है:
وَمَا أَرْسَلْنَا مِنْ رَّسُولٍ إِلاَّ بِلِسَانِ قَوْمِہِ
لِیُبَیِّنَ لَہُمْ فَیُضِلُّ اللّٰہُ مَنْ یَّشَآءُ وَیَہْدِیْ مَنْ یَّشَآءُ
وَهُوَ الْعَزِيزُ الْحَکِیْمُ ◌ (ابراھیم: 4)
"और
हमने नहीं भेजा कोई रसूल मगर ख़ुद उसकी क़ौम की ज़बान में (यानी उन लोगों की भाषा जानने
वाला), ताकि वह उनके सामने हक़ (सत्य)
को अच्छी तरह वाज़ेह (स्पष्ट) कर सके। फिर अल्लाह जिसको चाहता है गुमराह (पथभ्रष्ट)
कर देता है और जिसको चाहता है हिदायत दे देता है (अर्थात सत्य मार्ग दिखा देता है)
और वही प्रभुत्वशाली (ग़लबे वाला) और तत्वदर्शी (हिक्मत वाला) है।" [पवित्र क़ुरआन, सूरह इब्राहीम 14: 4]
पैग़म्बर मुहम्मद (ﷺ) चूंकि ‘अरबी थे
और उनके पहले मुख़ातब (संबोध्य) भी ‘अरबी थे, इस लिए क़ुरआन ‘अरबी भाषा में नाज़िल (अवतरित) हुआ था। लेकिन
आप (ﷺ) की
रिसालत (ईशदूतता) चूंकि ‘आलमी (अन्तर्राष्ट्रीय) है
तो दुनिया की हर क़ौम तक उनकी भाषा में आप (ﷺ) की
तालीमात (शिक्षाओं) को पहुँचाना, ‘उलमा-ए-उम्मत (धर्म समुदाय के विद्वानों) की ज़िम्मेदारी हुई।
इन सबके बावजूद क़ुरआन के अनुवाद का भी उसी तरह विरोध किया गया जिस तरह तोरात (Torah) और इंजील (Bible) के अनुवाद का किया गया।
बाबा-ए-उर्दू मौलवी ‘अब्दुल हक़ साहब (1870 -
1961 ई.) अपनी पुस्तक "क़दीम उर्दू" में अध्याय, "पुरानी उर्दू में क़ुरआन शरीफ़
के तर्जमे और तफ़्सीरें" के अंतर्गत लिखते हैं:
“आसमानी सहीफ़ों के तर्जमे (अनुवाद) की मुख़ालिफ़त (विरोध) लगभग
हर मुल्क और हर क़ौम में की गई है और यह मुख़ालिफ़त हमेशा 'उलमा-ए-दीन की तरफ़ से हुई
है। कारण यह है कि ये लोग अपने को 'उलूम-ए-दीनिया (धार्मिक विज्ञानों) का ख़ास माहिर (विशेषज्ञ)
और असरार-ए-इलाही (दिव्य रहस्यों) का वारिस (उत्तराधिकारी) मानते हैं और नहीं चाहते
कि ये बातें ‘आम (सार्वजनिक) हों जाएं, ‘आम हो गईं तो लोग एक हद तक इन बुज़ुर्गों (पुण्यात्माओं)
से बे-नियाज़ (बेपरवाह) हो जाएंगे और इस से उनकी बड़ाई एवं फ़ज़ीलत (श्रेष्ठता) में
फ़र्क़ (अंतर) आ जाएगा। कभी-कभी मुख़ालिफ़त इस लिए भी की गई क्योंकि तर्जमे और तफ़्सीरें
(टीकाएँ) उनके विचारों के विरुद्ध थीं और ऐसे मुतर्जिमीन (अनुवादकों) और मुफ़स्सिरीन
(टिप्पणीकारों) को तकलीफ़ें और 'उक़ूबतें (यातनाएं) पहुँचाई गईं। यह रविश (रवैया) किसी ख़ास मुल्क
या क़ौम के साथ मख़्सूस (विशिष्ट) न थी बल्कि हर जगह पाई जाती है।" [मौलवी डॉ. ‘अब्दुल हक़, क़दीम उर्दू, अंजुमन तरक़्क़ी उर्दू पाकिस्तान, कराची, 1961, पृ. 118]
दुख की बात है कि यह ज़ेहनियत (मानसिकता) आज भी
मौजूद है। लोग पवित्र क़ुरआन और हदीस की किताबों के अनुवाद को तो नहीं रोक पाए लेकिन
आज भी कुछ रिवायती फ़िक्र (पारंपरिक सोच) रखने वाले 'उलमा बरमला (खुले-आम) यह कहते सुने जाते है कि क़ुरआन
और हदीस की किताबों के अनुवाद को ख़ुद से न पढ़ो, इस से आपके गुमराह (पथभ्रष्ट) हो जाने का ख़तरा
है। नुऊज़ु बिल्लाहि मिन ज़ालिक! (अर्थात इस प्रकार की सोच से अल्लाह की पनाह)! पवित्र
क़ुरआन और पैग़म्बर (स.अ.व.) की हदीसें, जो लोगों के लिए ‘उमूमी हिदायत (सार्वजनिक मार्गदर्शन) का ज़रिया (स्रोत) हैं, उनसे गोया इस तरह रोका जाता
है जैसे कि वे गुमराही का स्रोत हों। इस रोक-टोक के बावजूद, यदि कोई व्यक्ति अपने जौक़
(रुचि) एवं प्रयासों से क़ुरआन और हदीस का अध्ययन करता है, तो उसके ज्ञान को न तो मान्यता
दी जाती है और न ही उसे प्रोत्साहित किया जाता है। ऐसा कहा जाता है कि ज्ञान किताबों
से नहीं आता बल्कि सीना-ब-सीना (Breast to Breast) मुंतक़िल (हस्तांतरित) होता है। मानो ऐसा है जैसे
कि ज्ञान का अर्जन शिक्षा की एक विशिष्ट शैली अर्थात मौखिक परम्परा के माध्यम से ही
संभव है! इस बात से कोई इंकार नहीं है कि ज्ञान सीना-ब-सीना भी हस्तांतरित होता है, लेकिन पुस्तकों का इंकार
(खंडन) और दीन (Religion) के मुख्य स्रोतों से लोगों
को ख़ौफ़ज़दा (भयभीत या आशंकित) करना कितना बड़ा ज़ुल्म है, इसका एहसास उनलोगों को नहीं
जो ऐसी फ़िक्र (सोच) के दाई (निमंत्रणकर्ता) हैं। ऐसे लोग केवल अपना महत्व बनाए रखने
के लिए ही ऐसा करते हैं जैसा कि मौलवी ‘अब्दुल
हक़ साहब ने फ़रमाया। शिक्षक का महत्व अपनी जगह मुसल्लम (सर्वमान्य) है, लेकिन ज्ञान के दूसरे स्रोतों
का इंकार कहां तक दुरुस्त (सही) है? फिर यह सोच भी कि दीन की सही समझ सिर्फ़ हमारे पास है और
हम ही लोगों का मार्गदर्शन कर सकते हैं जबकि उनकी याद-दाश्त (स्मरण शक्ति) और फ़हम
(समझ) की भी कुछ सीमाएँ हैं। यह बहुत संभव है कि एक व्यक्ति अपने अर्जित ज्ञान को जिस
व्यक्ति तक पहुँचाए, वह उससे अधिक फ़क़ीह (समझ-बूझ
रखने वाला) हो। अल्लाह के रसूल, मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम (अर्थात अल्लाह उन पर अपनी
रहमत और सलामती नाज़िल करे), का भी फ़रमान (कथन) है:
"نَضَّرَ
اللَّهُ امْرَأً سَمِعَ مَقَالَتِي فَبَلَّغَهَا، فَرُبَّ حَامِلِ فِقْهٍ غَيْرِ
فَقِيهٍ، وَرُبَّ حَامِلِ فِقْهٍ إِلَى مَنْ هُوَ أَفْقَهُ مِنْهُ" (سنن ابن
ماجہ، رقم الحدیث 230)
(अर्थ): "अल्लाह उस व्यक्ति को ख़ुश-ओ-ख़ुर्रम
(प्रफुल्ल) रखे जिसने मेरा कलाम (कथन) सुना फिर उसे (दूसरे व्यक्तियों तक) पहुंचा दिया, कुछ लोगों के पास फ़िक़्ह (धर्मशास्त्रीय
ज्ञान) की बात होती है लेकिन वह ख़ुद फ़क़ीह (सही समझ बूझ रखने वाले) नहीं होते, और कुछ लोग फ़िक़्ह की बात अपने
से ज़्यादा फ़क़ीह (समझदार) लोगों तक पहुंचा देते हैं।" [सुनन इब्न-ए-माजह, हदीस सं. 230, रिवायत ज़ैद इब्न-ए-साबित]
इसलिए हम दुनियादार, सांसारिक ज्ञान रखने वाले लोग भी अपने शिष्यों को ज्ञान देकर
उन्हें यह हिदायत (अनुदेश) ज़रूर देते हैं कि वे मूल स्रोतों (Primary Sources) को ख़ुद से अवश्य देखें, इसके पीछे यह सोच होती है
कि हो सकता है कि कुछ ऐसे निकात (सूक्ष्म एवं गूढ़ बिंदु) उन पर वाज़ेह (स्पष्ट) हों
जो हम उनको स्पष्ट नहीं कर सके। लेकिन इसके विपरीत मदरसों में यह शिक्षा दी जाती है
कि अकाबिर (धार्मिक बुज़ुर्गों) की फ़िक्र (Thought) को मिन-ओ-‘अन (अक्षरशः) मान लो और उस पर कोई वाद-विवाद या तर्क-वितर्क
मत करो, मानो समझ अकाबिर पर ख़त्म
हो चुकी है और समझ-बूझ (Comprehension) का दरवाज़ा बंद हो चुका है। जब मदरसों में ऐसी स्थिति है तो
ऐसे संकीर्ण विचार वाले ‘उलमा क़ुरआन और हदीस की पुस्तकों
के मुक्त अध्ययन की इजाज़त (अनुमति) कैसे दे सकते हैं? दरअस्ल (असल में), उन्हें डर होता है कि कहीं
उनकी पोल न खुल जाए, अपने मस्लक (पंथ या मज़हबी
विचारधारा) और फ़िक्र (नज़रिया) पर बनाए रखने के लिए उन्होंने जिन बातों को ‘आम लोगों
से छुपाया हुआ है, कहीं वह उनके सामने न आ जाएं, फिर लोग उनसे सवालात (प्रश्न)
न पूछने लगें या उनके मस्लक से तौबा न कर लें! दरअस्ल, उन्हें लोगों के दीन और ईमान
(आस्था) की चिंता नहीं है,
बल्कि उन्हें अपने मस्लक की
चिंता है, इल्ला माशा-अल्लाह!
यह जानना चाहिए कि किताबें अमीन (न्यासधारी) होती
हैं और ‘इल्म (ज्ञान) को बिना घटाए बढ़ाए अगली पीढ़ी को मुंतक़िल
(हस्तांतरित) कर देती हैं,
और हिदायत एवं सही समझ देना
तो अल्लाह रब्बुल-‘इज़्ज़त (परमप्रधान) का काम है। क़ुरआन एवं हदीस से केवल वे लोग
गुमराह होते हैं जिनके दिलों में कजी (टेढ़ापन) हो। जब कोई व्यक्ति सिद्क़-ए-नीयत
(मन की पवित्रता) और हिदायत की तलब (चाह) में पवित्र क़ुरआन और हदीस की किताबों को
खोलता है, तो अल्लाह (ﷻ) उसे अवश्य ही सत्य मार्ग दिखाता है अर्थात हिदायत ज़रूर देता है।
हिदायत के लिए अस्ल चीज़ तलब-ए-सादिक़ (सच्ची चाह) और इख़्लास-ए-नीयत (मन की पवित्रता
या निष्कपटता) है। अगर सिद्क़-ए-नीयत न हो अर्थात इरादे नेक न हों तो अहल-ए-मदारिस
(मदरसे की शिक्षा प्रणाली से जुड़े लोगों) के गुमराह होने के भी उतने ही इम्कानात
(संभावनाएं) हैं जितने स्वतंत्र रूप से धार्मिक स्रोतों का अध्ययन करने वाले ‘असरी-‘उलूम (समकालीन विज्ञानों एवं
कलाओं) से जुड़े लोगों के।
फिर यह भी सोचना चाहिए कि एक ‘आम आदमी क़ुरआन और
हदीसों का अनुवाद भी तो उनके मुख़्लिस अकाबिर का ही पढ़ रहा होता है, जिन्होंने अनुवाद केवल इस
नीयत (इरादे) से किया था कि अल्लाह के अहकाम (Commandments) और पैग़म्बर (ﷺ) की
सुन्नतें (जीवन पद्धति) आम लोगों तक पहुंच सके। स्वतंत्रता सेनानी शैख़ अल-हिंद मौलवी
महमूद अल-हसन देवबंदी (1851 - 1920 ई.) ने अपने तर्जमा-ए-क़ुरआन (क़ुरआन के अनुवाद)
की प्रस्तावना (मुक़द्दमा) में यह लिखा है:
"हज़रात ‘उलमा ने ‘अवाम (आम लोगों) की बहबूदी (भलाई) की
ग़रज़ (नीयत) से जैसे सह्ल (सरल) और आसान मुत’अद्दिद (अनेकों) तर्जमे (अनुवाद) शाए’
(प्रकाशित) कर दिए हैं, ऐसे ही इसकी भी हाजत (आवश्यकता)
है कि 'अलल-'उमूम (सामान्य रूप से) मुसलमानों को इन तर्जमों (अनुवादों) को
सीखने और उनके समझने की तरफ़ रग़बत (रुचि) भी दिलाई जाए। ‘उलमा-ए-किराम अहल-ए-इस्लाम
(अर्थात मुसलमानों) को ख़ास तौर (विशेष रूप) से तर्जमों के समझने और पढ़ने की ज़रूरत
और उसकी मंफ़'अत (फ़ायदे) दिल-नशीं करने (दिल में बिठाने) में कोताही (लापरवाही)
न करें। बल्कि तर्जमे की ता’लीम (शिक्षण) के लिए ऐसे सिलसिले
(व्यवस्था) भी क़ायम (स्थापित) कर दें कि जो चाहे ब-सहूलत (आसानी के साथ) अपनी हालत
(स्थिति) के मुनासिब (अनुसार) और फ़ुर्सत के मुवाफ़िक़ (अनुकूल) हासिल (प्राप्त) कर
सके।”[तफ़्सीर-ए-उस्मानी की प्रस्तावना, ‘आलमीन पब्लिकेशन प्रेस, लाहौर, 1979 ई. में प्रकाशित]
इसलिए ज़रूरत इस बात की है कि इस फ़िक्र (विचार)
की कि क़ुरआन और अहादीस के ‘आम (सार्वजनिक) होने से लोगों
की गुमराही का ख़द्शा (ख़तरा) है, ‘उलमा की तरफ़ से मज़म्मत (निंदा) हो और पढ़े-लिखे ग़ैर-‘अरबी-दान (‘अरबी भाषा नहीं
जानने वाले) लोगों को उनके तराजिम (अनुवादों) की तरफ़ मुतवज्जह (आकर्षित) किया जाए ताकि
वे भी अहकाम-ए-इलाहियह (ईश्वरीय आदेशों) और सुनन-ए-नबविय्यह (पैग़म्बर मुहम्मद की जीवन
शैली) से वाक़िफ़ (परिचित) हों। मुख़्लिस अकाबिर 'उलमा-ए-दीन ने ‘आम लोगों के इस्तिफ़ादे (लाभ) के
लिए तर्जमे (Translations), शुरूहात (Annotations) और तफ़्सीरों (Exegeses) के सिलसिले (संबंध) में जो
योगदान दिए हैं, उन से इस्तिफ़ादा न करना
(नफ़ा न उठाना) क़ुफ़्रान-ए-ने'मत (अर्थात ईश्वर के दिए हुए उपहारों की अकृतज्ञता या नाशुकरी)
है। अलहम्दुलिल्लाह, अब क़ुरआन मजीद और हदीस की
किताबों का अनुवाद उर्दू,
हिंदी और अंग्रेजी में ही
नहीं बल्कि दुनिया की अधिकांश भाषाओं में मौजूद है, इस से बढ़ कर उसूल-ए-हदीस (The Principles of Evaluation of Hadith), फ़िक़्ह (Islamic Jurisprudence), उसूल-ए-फ़िक़्ह (The Principles of Islamic Jurisprudence), इस्लामी तारीख़ (Islamic
History) और अन्य आवश्यक इस्लामी ‘उलूम
(Islamic Sciences) से संबंधित किताबें भी विभिन्न
भाषाओं में उपलब्ध हैं। यह समझना चाहिए कि अस्ल मक़्सद (उद्देश्य) अहकाम-ए-इलाहियह
और सुनन-ए-नबविय्यह से वाक़िफ़ होना है, चाहे किसी भी भाषा में हो। यदि कोई व्यक्ति ‘अरबी भाषा से वाक़िफ़
हो तो यह अच्छी बात है बल्कि लोगों को उसे सीखने की तर्ग़ीब (प्रेरणा) भी देनी चाहिए, लेकिन ‘अरबी नहीं जानने वालों
के लिए मुख़्लिस ‘उलमा-ए-किराम (धर्मनिष्ठ विद्वानों)
द्वारा अनुवादों और व्याख्याओं के रूप में किए गए योगदानों (ख़िदमात) से इस्तिफ़ादा करने (लाभ उठाने) के लिए उन्हें प्रोत्साहित
भी करना चाहिए, लोगों को उन से इस्तिफ़ादा
करने से रोकना या उनको निरुत्साहित (Discourage) करना, उन मुख़्लिस ‘उलमा के योगदानों को कल’अदम क़रार देने (अमान्य करने) के समान है और इस पर विचार किया जाना चाहिए। यह सोच
रखना कि शत प्रतिशत लोगों को अनिवार्य रूप से ‘अरबी का ज्ञान हो या वे पारंपरिक मदरसों
से ही ज्ञान का अर्जन करें जब ही उन्हें ‘इल्म वाला (ज्ञानी) कहा जा सकता है, एक अजीब सोच है जिसे किसी
भी तरह से व्यावहारिक (Practical)
नहीं कहा जा सकता है। ‘अमली
नुक़्ता-ए-नज़र (व्यावहारिक दृष्टिकोण) से, यह एक ग़ैर-हक़ीक़त-पसंदाना (अयथार्थवादी) सोच (विचार) है।
अहक़र ने हमेशा ही इस फ़िक्र (विचार) की वकालत की
है कि ‘असरी-‘उलूम से जुड़े या पारंगत लोग, दीन (धर्म) के उन स्रोतों
से सीधे तौर पर इस्तिफ़ादा करें जिनका अनुवाद या जिनकी व्याख्या, अहल-ए-हक़ ‘उलमा (सत्यनिष्ठ विद्वानों)
ने कर दिया है। बस अपनी नीयत ख़ालिस (विशुद्ध) रखें; हिदायत (सत्य मार्ग को पहचानने) की तलब (जिज्ञासा), ‘इल्म पर ‘अमल, और अल्लाह की रज़ा (ख़ुशनूदी)
पेश-ए-नज़र हो तो आपको हिदायत ज़रूर मिलेगी और अल्लाह आपको ऐसी समझ ‘अता (प्रदान) करेगा कि मशहूर
पारम्परिक इस्लामी शिक्षा संस्थानों के ग्रेजुएट भी त’अज्जुब (आश्चर्य) करेंगे कि इस शख़्स को यह बातें आख़िर कैसे समझ में आ रही हैं? अहक़र ये बातें इतने यक़ीन
के साथ इस लिए कह रहा है,
क्योंकि अल्लाह ने अपनी किताब
में फ़रमाया है:
وَ الَّذِیۡنَ جَاهَدُوا فِیۡنَا لَنَہۡدِیَنَّہُمۡ سُبُلَنَا ؕ
(العنکبوت: 69)
अर्थ: "और जो लोग हमारी राह में मुजाहदे (कष्ट
युक्त अनथक प्रयास) करते हैं, हम उन्हें अपने रास्ते ज़रूर दिखाएंगे।" [पवित्र क़ुरआन, सूरह अल-‘अनकबूत 29: 69]
इसलिए जो लोग भी ‘इल्म हासिल करने की राह में काविशें
(मेहनत) और मुजाहदे करेंगे,
अल्लाह त’आला उन्हें ‘इल्म और हिदायत ज़रूर देगा, शर्त यह है कि उनकी नीयतों
में ख़ुलूस (निष्कपटता) हो। दरअस्ल (वास्तव में) अल्लाह त’आला ही ‘इल्म (ज्ञान) और हिदायत का अस्ल मालिक है, अन्यथा उपरोक्त मानसिकता वाला
एक विशेष समूह मुझ जैसे बहुत से लोगों को ‘इल्म-ओ-हिदायत (ज्ञान और सत्य मार्ग की पहचान) से महरूम (वंचित) ही कर देता! अल्लाह
त’आला हमें हिदायत और ‘अमल की तौफ़ीक़ (अवसर,
शक्ति एवं सामर्थ्य) दे। आमीन!
(ईमेल: mwzafar.pu@gmail.com)