Sunday, 22 January 2023

साइंसी विधाएँ भी अल्लाह की मा’रिफ़त का साधन हैं!

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डॉ. मो. वासे ज़फ़र

क़ुरआन में एक बहुत ही महत्वपूर्ण बात कही गई है, वह यह है कि अल्लाह के बन्दों में से केवल इल्म (ज्ञान) रखने वाले लोग ही उस से डरते हैं। इस इल्म से कौन सा इल्म मुराद है, और उसे हासिल करने के रास्ते या माध्यम क्या हैं? दूसरे शब्दों में यूँ कहें कि दुनिया में इल्म (Knowledge) की वह कौन कौन सी शाखें (Branches) हैं जो ख़शियत-ए-इलाही (खौफ़-ए-ख़ुदा) के उस मक़ाम तक पहुँचने में सहायक (मददगार) हैं? इन बातों को समझने के लिए यह ज़रूरी है कि क़ुरआन की जिस आयत (Verse) में यह बात कही गई है उसके संदर्भ या प्रसंग पर ग़ौर (विचार) किया जाए। क़ुरआन की उस आयत का तर्जुमा (अनुवाद) उसके पूर्व की आयत के साथ इस प्रकार है:

"क्या तुम देखते नहीं हो कि अल्लाह आसमान से पानी बरसाता है और फिर उसके ज़रिए से हम तरह-तरह के फल निकाल लाते हैं, जिनके रंग अलग-अलग होते हैं। पहाड़ों में भी सफ़ेद और लाल विभिन्न रंगों की धारियाँ पाई जाती हैं, और कुछ गहरी (भुजंग) काली भी। और इसी तरह इन्सानों, जानवरों और मवेशियों में भी विभिन्न प्रकार के रंग होते हैं। हक़ीक़त ये है कि अल्लाह के बन्दों में से सिर्फ़ इल्म रखने वाले लोग ही उससे डरते हैं। बेशक अल्लाह ज़बरदस्त (प्रभुत्वशाली) और माफ़ करने वाला है।" [पवित्र क़ुरआन, सूरह फ़ातिर 35: 27-28]

इन आयात (Verses) पर ग़ौर करने से यह बात समझ में आती है कि यहां इल्म से अल्लाह, उस की क़ुदरत (ईश्वरीय शक्ति व सामर्थ्य), उसकी सृजन शक्ति, उसकी कारीगरी, और फ़नकारी (शिल्पकारिता) की मा'रिफ़त (समझ, ज्ञान और पहचान) मुराद है। इस इल्म को हासिल करने के लिए या मा'रिफ़त (Realization of God) के इस मक़ाम तक पहुंचने के लिए क़ुरआन ने यहां चंद बातों की तरफ़ इंसान का ध्यान आकृष्ट किया है। उनमें सबसे पहला बारिश (वर्षा) का निज़ाम (तंत्र या व्यवस्था) है। क़ुरआन ने इंसान को प्रेरित किया है कि वह बारिश के निज़ाम पर ग़ौर करे और उसके पीछे काम कर रही अल्लाह की क़ुदरत को समझे। यह शुद्ध रूप से विज्ञान (Science) विशेषतः भूगोल (Geography), पर्यावरण विज्ञान (Environmental Science) एवं मौसम विज्ञान (Meteorology) से संबंधित इल्म है।

अगर पूरे जल चक्र (Water Cycle) पर हम एक गहरी निगाह डालें तो क़ुदरत के निज़ाम की प्रशंसा किये बग़ैर नहीं रहेंगे। किस प्रकार ज़मीनी सतह, दरियाओं, तालाबों, समुंदरों आदि से वाष्पीकरण (Evaporation) एंव पेड़ पौधों से वाष्पोत्सर्जन (Transpiration) के माध्यम से पानी वाष्प बनकर ऊपर उठता है और संघनन (Condensation) की प्रक्रिया से बादलों का रूप धारण करता है, फिर हवा उन बादलों को दूर दराज़ के पहाड़ों, पठारों, मैदानी इलाकों, दरियाओं एंव समुंदरों के ऊपर बिखरे देती हैं जहां वर्षा होती है और दरियाओं और समुंदरों के साथ अन्तःश्रवण (Percolation) के माध्यम से ज़मीन में पानी की सतह बनी रहती और हम जहां चाहें वहां से कुओं एवं नलकूपों के ज़रिए निर्मल एवं स्वच्छ जल हासिल कर लेते हैं। स्वच्छ जल बड़ी मात्रा में बर्फ़ के रूप में पहाड़ों पर भी जमा कर दिया जाता है जो धीरे धीरे पिघल कर दरियाओं एवं समुंदरों को जीवित रखता है तथा ज़मीनी सोतों (Water Veins) के माध्यम से भी दूर दराज़ के मैदानी इलाकों तक पहुंच जाता है। दुनिया की कोई भी सरकार समुंद्री पानी को इतनी बड़ी मात्रा में पूरी तरह स्वच्छ कर के उसे पहाड़ों पर जमा करने या मैदानी इलाकों में पहुंचाने की यह व्यवस्था नहीं कर सकती न ही ज़मीन के अंदर की पानी की सतह को बनाए (maintain) रख सकती है जो क़ुदरत की बुद्धिमान योजना (Intelligent Planning) से ख़ुद बख़ुद जारी है।

दूसरी चीज़ जिसकी तरफ़ इन आयतों ने हमारा ध्यान आकृष्ट किया है वह यह है कि वर्षा का यह पानी विभिन्न स्रोतों से जब सूखी और मुर्दा ज़मीनों तक पहुंच जाता है तो वह पेड़-पौधों, फूलों एंव फलों से लहलहा उठती है। एक ही ज़मीन और एक तरह के पानी से सिंचाई करने के बावजूद उसमें विभिन्न रंगों एवं प्रकार के फूल और फल निकलते हैं जिनकी ख़ुशबू एवं स्वाद भी अलग अलग ढंग का हुआ करता है। इंसान क्या समझता है कि यह सब स्वतः हो रहा है? नहीं बल्कि उसके पीछे अल्लाह-ईश्वर की क़ुदरत काम कर रही होती है जो ज़रा भी गहराई से सोचने से समझ में आ सकती है। अगर ग़ौर किया जाए तो यह ज्ञान वनस्पति विज्ञान (Botany) एवं कृषिकर्म (Agriculture) विषय से जुड़ा है।

तीसरी चीज़ जिस की तरफ़ क़ुरआन ने ध्यान आकृष्ट किया है वह पहाड़ों की संरचना एवं उनकी रंगत में पाई जाने वाली विभिन्नता है जो कि भूगोल (Geography), भू-विज्ञान (Earth Science) एंव भूगर्भशास्त्र (Geology) विषय का मुद्दा है। कुछ पहाड़ सफ़ेद, कुछ सुर्ख़ (लाल) और कुछ बहुत गहरे सियाह (काले) रंग के होते हैं। इसी तरह कुछ पहाड़ बिल्कुल सूखे, बंजर और वीरान (निर्जन) होते हैं जबकि कुछ पेड़ पौधों और जंगलात से हरे-भरे। फिर इस पर भी ग़ौर कीजिये कि पहाड़ों से कितने प्रकार के जैविक (Biotic)  एवं अजैविक (Abiotic) प्राकृतिक संसाधनों (Natural Resources) की प्राप्ति होती है। उन्हें किसने पहाड़ों में जड़ दिया है? यहां भी ईश्वर-अल्लाह की कारीगरी एवं फ़नकारी के क़ाइल हुए बग़ैर आप नहीं रहेंगे। पहाड़ों पर ग्लेशियर (Glacier) के निज़ाम (व्यवस्था) एवं उनके फ़ायदे (लाभ) का उल्लेख ऊपर लिखित पंक्तियों में किया जा चुका है जिनके पुनरावृत्ति की अब आवश्यकता नहीं।

चौथी चीज़ जिसकी तरफ़ क़ुरआन ने ध्यान आकृष्ट किया है वह इंसान की अपनी एवं जानवरों और मवेशियों की संरचना और उनका रंग व रूप है। इन में इतनी विविधता (diversity) और जटिलता (complexity) है कि अगर उन पर ग़ौर किया जाए तो एक स्तर (level) के बाद इंसान का दिमाग़ काम नहीं करेगा और वह "ईश्वर-अल्लाह सबसे बड़ा है" (अर्थात उसकी क़ुदरत बहुत बड़ी है) कहने पर मजबूर हो जाएगा। मानवशास्त्र या नृविज्ञान (Anthropology), जीवविज्ञान (Biology), अनुवांशिकी (Genetics), मेडिकल साइंस, पशुचिकित्सा विज्ञान (Veterinary Science) आदि जिन से इनका ज्ञान जुड़ा है उनमें दिन प्रतिदिन रहस्योद्घाटन हो रहे हैं नई नई बातें सामने आती रहती हैं। इनमें से कोई भी विषय अपने आप में पूर्ण नहीं कहा जा सकता। साइंस की हर तहक़ीक़ (अनुसंधान) वास्तव में चराचर जगत या सृष्टि में निहित ईश्वर-अल्लाह की क़ुदरत की निशानियों को ही सार्वजनिक कर रही है।

क़ुरआन की दूसरी आयत (सूरह रूम 30:21) में इंसानों में रंगों की विविधता के साथ बोल चाल और भाषाओं की विविधता पर भी ध्यान आकृष्ट किया गया है। इतनी सारी भाषाएं और उनकी उपभाषाएं (Dialects) इंसान को किस ने सिखाए? आज भी भाषाविद (Linguists) बहुत सी पुरानी ज़बानों के आलेखों को समझने और उनकी व्याख्या करने में असमर्थ हैं जो ऐतिहासिक अनुसंधानों के फलस्वरूप शिलालेखों एवं पांडुलिपियों के रूप में सामने आई हैं। फिर इंसान के व्यवहार को समझने से जुड़े ज्ञान के क्षेत्र जैसे मनोविज्ञान (Psychology), समाजशास्त्र (Sociology), राजनीतिशास्त्र (Political Science), अर्थशास्त्र (Economics) आदि इन सब के अतिरिक्त हैं।

इल्म के इन सभी क्षेत्रों की तरफ़ ध्यान आकर्षित करने के बाद क़ुरआन यह कह रहा है कि अल्लाह से इल्म वाले ही डरते हैं। इस का मतलब यह है कि इल्म के इन में से किसी भी क्षेत्र में इंसान जितना गहन अध्ययन करता जाएगा और जितना ज़ियादा निपुणता की तरफ़ बढ़ेगा उतना ही उसे अल्लाह-ईश्वर की मा'रिफ़त (पहचान) हासिल होगी, उतना ही वह उसकी क़ुदरत (शक्ति एवं सामर्थ्य), हिकमत (बुद्धिमत्ता) और अज़मत (महानता) का क़ाइल होगा। इन इल्मों को हासिल करने के बाद भी अगर कोई व्यक्ति अल्लाह को नहीं पहचान सका, इसका मतलब यह है कि वह अभी सतही ज्ञान का मालिक है, गहराई से उसने उनमें चिंतन मनन ही नहीं किया या उसके अध्ययन की दिशा ही सही नहीं थी।

इसी तरह क़ुरआन दूसरी आयतों (जैसे अल-अनआम 6:96, अल-आराफ़ 7:54, यूनुस 10:05, अल-रा'13:02, अल-नह्ल16:12, अल-अंबिया 21:33, अल-हज्ज 22:18, अल-अंकबूत 29:61, लुक़मान 31:29 फ़ातिर 35:13, यासीन 36:40 आदि) में इंसान का ध्यान सूर्य, चांद, सितारों और ग्रहों की तरफ़ भी आकर्षित करता है और उनकी संरचना, उनके संचलन (Movements), परिक्रमा-पथ, कक्षीय गति और उनके आपस में बने हुए संतुलन पर भी ग़ौर-ओ-फ़िक्र (चिंतन एवं मनन) करने के लिए प्रेरित करता है ताकि वह ईश्वर की इंटेलीजेंट प्लानिंग (Intelligent Planning) को समझ कर उस को पहचाने। यह पूरा ब्रह्मांड (Universe) हक़ीक़त में ईश्वर- अल्लाह की बुद्धिमत्ता, सर्वसामर्थ्य एवं उसकी सृजन शक्ति का दर्पण है। इसमें होने वाली हर घटना, और इसकी तमाम चीज़ें पुकार पुकार कर यह कह रही हैं कि इस ब्रह्मांड का कोई रचयिता है लेकिन उनकी पुकार सुनने और समझने के लिए कामिल इल्म (Perfect Knowledge) और सही फ़िक्र (Judicious Thought) चाहिए। आधे अधूरे ज्ञान से यह मक़ाम हासिल नहीं हो सकता।

क़ुरआन ने तो यहाँ तक कह दिया है:

سَنُرِیۡہِمۡ  اٰیٰتِنَا فِی الۡاٰفَاقِ  وَ فِیۡۤ   اَنۡفُسِہِمۡ حَتّٰی یَتَبَیَّنَ  لَہُمۡ  اَنَّہُ  الۡحَقُّ ؕ

अर्थात, "जल्द ही हम इनको अपनी (क़ुदरत की) निशानियाँ ब्रह्मांड में भी दिखाएँगे और इनके अपने अन्दर भी, यहाँ तक कि इन पर ये बात खुल जाएगी कि ये क़ुरआन सचमुच हक़ (Truth) है।" [पवित्र क़ुरआन, सूरह हामीम सज्दा: 53]

इस ब्रह्मांड में क़ुदरत की निशानियाँ सबसे पहले और आसानी से किसको समझ में आ सकती हैं, ज़ाहिर है किसी ब्रह्मांड विज्ञानी (Cosmologist), भौतिक विज्ञानी (Physicist) या खगोल-भौतिकविद (Astrophysicist) को। गैलेक्सीज़ (Galaxies) और ब्लैक होल्स (Black Holes) को देख देख कर आज कौन हैरान व परेशान और हक्का बक्का है? ज़ाहिर है खगोलशास्त्री (Astronomers)! विज्ञान वास्तव में इस ब्रह्मांड में मौजूद क़ुदरत की निशानियों की परतें ही खोल रहा है।

इसी तरह अपने वजूद (अस्तित्व) के अंदर अल्लाह की निशानियाँ किस को बेहतर तौर पर समझ में आ सकती हैं, ज़ाहिर है शरीर रचना विज्ञान (Anatomy), शरीर क्रियाविज्ञान (Physiology) या मनोविज्ञान (Psychology) के किसी माहिर को शर्त यह है कि वह ईमानदारी से उन पर चिंतन करे या उसकी सही ढंग से रहनुमाई की जाए। इसी उद्देश्य के तहत इल्म की सभी शाखाओं के इस्लामीकरण की आवश्यकता महसूस होती है। कम से कम ऐसा व्यक्ति जो क़ुदरत के निज़ाम और उसकी सृष्टि पर चिंतन मनन करेगा, नास्तिक तो नहीं रहेगा।

ऊपर दी गई व्याख्या से यह बात समझ में आई कि क़ुरआन विभिन्न विधाओं एवं कलाओं में तफ़रीक़ (भेदभाव) नहीं करता बल्कि हर उस इल्म की तरफ़ इंसान को मुतवज्जेह (ध्यान आकृष्ट) करता है बल्कि उन पर अनुसंधान की दावत (निमंत्रण) देता है जो उसे अल्लाह की मा'रिफ़त की तरफ़ ले जाए।

इस से यह बात भी समझ में आती है कि उलेमा से यहां वह रिवायती (Traditional) या इस्तिलाही (Conventional) उलेमा मुराद नहीं हैं जिन्होंने चंद दर्सी किताबों (पाठ्यपुस्तकों) को पढ़ रखा हो या किसी प्रचलित परीक्षा (इम्तिहान) में कामयाब होने की सनद (सर्टिफ़िकेट) रखते हों बल्कि वह लोग मुराद हैं जो अल्लाह की हक़ीक़ी मा'रिफ़त रखते हों चाहे उनका संबंध साइंसी विधाओं के किसी क्षेत्र से ही हो। जो जितनी अल्लाह की मा'रिफ़त रखता है, उतना ही उस से डरता है। इबादत का वास्तविक मज़ा भी ऐसे ही लोगों को हासिल होता है। इसके विपरीत जो लोग एक ईश्वर-अल्लाह की इबादत नहीं करते, उसकी पैदा की हुई चीज़ों को ही उसका शरीक (साझी) ठहराते हैं, उसकी नाफ़रमानियाँ करते हैं, उसके आदेशों की अवहेलना करते हैं, और लोगों पर ज़ुल्म-ओ-सितम (अत्याचार) के पहाड़ तोड़ते हैं, वे दर-असल (हक़ीक़त में) अल्लाह की सही मा'रिफ़त नहीं रखते। यहां इस फ़र्क़ (अंतर) को भी समझना चाहिए कि क़वानीन-ए-शरी'अत (धार्मिक क़ानून) का इल्म और चीज़ है और अल्लाह की मा'रिफ़त और चीज़। धर्मशास्त्र का ज्ञान रखने वाले बहुत से लोग भी ईश्वर-अल्लाह की वास्तविक मा'रिफ़त नहीं रखते जिसके फलस्वरूप खौफ़-ए-ख़ुदा (ईश्वर के भय) से ख़ाली और उसकी नाफ़रमानियों के मूर्तकिब (दोषी) होते हैं। दूसरी तरफ़ बहुत से ऐसे लोग भी होते हैं जो मा'रिफ़त-ए-ख़ुदावंदी (ईश्वर की पहचान) में निपुण और ख़शियत-ए-इलाही (ईश्वर के भय) से ओतप्रोत होते हैं लेकिन धर्मशास्त्र का बहुत ज्ञान नहीं रखते।

अब इस बात पर एक सच्ची घटना सुनिए जिसे बयान करने वाले अल्लामा इनायतुल्लाह मशरिक़ी (25 अगस्त 1888ई. - 27 अगस्त 1963ई.) हैं और जिसका संबंध इंग्लैंड के विख्यात ब्रह्मांड विज्ञानी (Astrophysicist) सर जेम्स जीन्स (11 सिंतबर 1877 ई. - 16 सितंबर 1946ई.) से है! अल्लामा इनायतुल्लाह मशरिक़ी कहते हैं:

"1909 ई. की बात है, रविवार का दिन था और ज़ोर की बारिश हो रही थी, मैं किसी काम के लिए बाहर निकला तो कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी के मशहूर ब्रह्मांड विज्ञानी सर जेम्स जीन्स (Sir James Jeans) पर नज़र पड़ी जो बग़ल में इंजील (Bible) दबाए चर्च की तरफ़ जा रहे थे, मैं ने क़रीब हो कर सलाम किया, उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया, दोबारा सलाम किया तो वह मुतवज्जेह हुए और कहने लगे, "तुम क्या चाहते हो?", मैं ने कहा, दो बातें; पहली बात यह कि ज़ोर की बारिश हो रही है और आप ने छाता बग़ल में दाब रखा है, अगर कोई मस्लहत (उचित कारण) न हो तो तान लीजिये। सर जेम्स अपनी बदहवासी पर मुस्कुराए और छाता तान लिया।

दूसरी बात यह कि आप जैसा विख्यात (वैज्ञानिक) आदमी गिरजा में इबादत के लिए जा रहा है, यह क्या? मेरे इस प्रश्न पर प्रो. जेम्स लम्हे भर के लिए रुक गए और फिर मेरी तरफ़ मुतवज्जेह हो कर फ़रमाया: "आज शाम को चाय मेरे साथ पियो"। चुनांचे मैं शाम को उनके निवास स्थान पहुँचा। ठीक 4 बजे लेडी जेम्स बाहर आकर कहने लगीं "सर जेम्स आप के मुंतज़िर (प्रतीक्षार्थी) हैं", अंदर गया तो एक छोटी सी टेबल पर चाय लगी हुई थी, लेडी जेम्स ने चाय बनाकर एक प्याली मुझे और एक प्रोफ़ेसर साहब को दी। प्रोफ़ेसर साहब तसव्वुरात (कल्पनाओं) में खोए हुए थे, कहने लगे, "तुम्हारा सवाल क्या था?" और मेरे जवाब का इंतज़ार किये बग़ैर खगोलीय पिंडों के निर्माण, उनके आश्चर्यजनक निज़ाम (System), उनके बेइंतहा रहस्यों एवं फ़ासलों (distance), उनकी पेचीदा राहों और कक्षाओं, एंव उनके पारस्परिक आकर्षण (एवं संतुलन) तथा उनकी रौशनी के तूफ़ान पर वह विश्वास बढ़ाने वाला विवरण दिया कि मेरा दिल अल्लाह की इस दास्तान-ए-क़ुदरत एवं असीम शक्ति पर दहलने लगा, और उनकी अपनी स्थिति यह थी कि सर के बाल सीधे उठे हुए थे, आंखों से हैरत (आश्चर्य) एवं खौफ़ की दोगुना कैफ़ियतें (हालत) ज़ाहिर (स्पष्ट) थीं, अल्लाह की हिकमत (Wisdom) एवं बुद्धिमत्ता की हैबत (ख़ौफ़) से उनके हाथ थोड़ा कांप रहे थे, और आवाज़ भी लरज़ (कांप) रही थी। फ़रमाने लगे "इनायतुल्लाह ख़ान! जब मैं ख़ुदा की सृजनात्मक कारनामों पर एक सरसरी नज़र डालता हूँ तो मेरी तमाम हस्ती (अस्तित्व) अल्लाह के तसव्वुर (कल्पना) एवं उसके जलाल (महिमा) से लरज़्ने (कांपने) लगती है, और जब कलीसा (गिरजा) में ख़ुदा के सामने सर झुका कर कहता हूँ "तू बहुत महान है, तू बहुत बड़ा है" तो मेरी हस्ती (अस्तित्व) का हर ज़र्रा (कण) मेरा हमनवा (साथी) बन जाता है। मुझे बेहद सुकून और ख़ुशी नसीब होती है और इन सज्दों के बाद मैं कुछ हल्का सा महसूस करने लगता हूँ, आम लोगों की सिर्फ़ ज़ुबान नमाज़ पढ़ती है और मेरे अस्तित्व का कण कण अल्लाह के गुणगान में शामिल हो जाता है। मुझे दूसरों की अपेक्षा इबादत में हज़ार गुना ज़्यादा कैफ़ (मज़ा) मिलता है, कहो इनायतुल्लाह ख़ान! तुम्हारी समझ में आया कि मैं गिरजे में क्यों जाता हूँ?"

अल्लामा मशरिक़ी कहते हैं कि प्रोफ़ेसर जेम्स के इस लेक्चर ने मेरे दिमाग़ में अजीब कोहराम (हलचल) पैदा कर दिया। मेरी निगाह-ए-तसव्वुर (कल्पना शक्ति) क़ुरआन का एक जायज़ा लेने लगी और एक दिलचस्प आयत सामने आ गई। मैं ने कहा, जनाब वाला! मैं आप के रूह अफरोज़ (स्फूर्तिदायक) विवरण से काफ़ी प्रभावित हुआ हूँ। इस सिलसिले में क़ुरआन की एक आयत याद आ गई है, अगर इजाज़त हो तो पेश करूं! फ़रमाया, "ज़रूर" तो मैं ने यह आयतें पढ़ी:

وَ مِنَ الۡجِبَالِ جُدَدٌۢ  بِیۡضٌ وَّ حُمۡرٌ  مُّخۡتَلِفٌ اَلۡوَانُہَا وَ غَرَابِیۡبُ سُوۡدٌ ﴿۲۷﴾ وَ مِنَ النَّاسِ وَ الدَّوَآبِّ وَ الۡاَنۡعَامِ مُخۡتَلِفٌ اَلۡوَانُہٗ  کَذٰلِکَ ؕ اِنَّمَا یَخۡشَی اللّٰہَ مِنۡ عِبَادِہِ  الۡعُلَمٰٓؤُا ؕ اِنَّ اللّٰہَ عَزِیۡزٌ  غَفُوۡرٌ ﴿۲۸

यह वही आयात हैं जिनका अर्थ इस लेख के प्रारंभिक पैराग्राफ़ में लिखा गया है लेकिन बात में निरंतरता के उद्देश्य से उसे एक बार फिर नक़्ल किया जा रहा है:

"पहाड़ों में भी सफ़ेद और लाल धारियाँ पाई जाती हैं जिन के रंगों में भिन्नता होती है और कुछ गहरी (भुजंग) काली भी। और इसी तरह इन्सानों और जानवरों और मवेशियों के रंग भी अलग-अलग होते हैं। हक़ीक़त ये है कि अल्लाह के बन्दों में से सिर्फ़ इल्म रखने वाले लोग ही उससे डरते हैं,....।" [क़ुरआन, सूरह फ़ातिर 35: 27-28]

यह आयत सुनते ही प्रोफ़ेसर जेम्स बोले, "क्या कहा? अल्लाह से केवल इल्म वाले ही डरते हैं, आश्चर्यजनक! बहुत अजीब ! यह बात जो मुझे 50 वर्ष के लगातार अध्ययन एवं अवलोकन (Observations) के बाद मालूम हुई, मुहम्मद () को किस ने बताई? क्या क़ुरआन में वाक़ई यह आयत (Verse) मौजूद है? अगर है तो मेरी गवाही लिख लो कि क़ुरआन एक इल्हामी (ईश्वरीय संदेश पर आधारित) किताब है, मुहम्मद () अनपढ़ था, उसे यह महान हक़ीक़त (reality) ख़ुद बख़ुद कभी मालूम नहीं हो सकती, उसे यक़ीनन अल्लाह ने बताई थी, बहुत ख़ूब! बहुत अजीब!" और सर जेम्स कई मिनट तक इस आयत पर सर धुनते रहे और मुहम्मद-ए-अरबी () की ख़िदमत में ख़िराज-ए-'अक़ीदत (श्रधांजलि) पेश करते रहे।" [मासिक नुक़ूश, लाहौर, शख्सियात नम्बर-2, अक्टूबर 1956, पेज 1208-09 (हिंदी रूपांतरण डॉ. मो. वासे ज़फ़र)]

यह वाक़ि'आ (घटना) केवल एक उदाहरण है इस बात को समझने के लिए कि ईश्वर-अल्लाह से इल्म वाले (ज्ञानी लोग) ही डरते हैं और साइंसी विधाएँ भी अल्लाह की मा'रिफ़त का साधन हैं! प्रोफ़ेसर जेम्स ने अपने इल्म (Knowledge), अवलोकन (Observation), अनुभवों (Experiences) एवं चिंतन (Thoughts) से अल्लाह को पहचान लिया अर्थात उसकी मा'रिफ़त हासिल कर ली। मानो वह "ला इलाह इल्लल्लाह" (नहीं कोई पूज्य सिवा अल्लाह के) के तो क़ाइल हो चुके थे, अल्लामा इनायतुल्लाह मशरिक़ी ने उनके सामने क़ुरआन की केवल दो आयतें पेश की और वह "मुहम्मदुर रसूलुल्लाह" (मुहम्मद अल्लाह के रसूल हैं) के भी क़ाइल हुए बग़ैर नहीं रहे।

इसी तरह मुसलमानों की यह ज़िम्मेदारी थी कि विज्ञान के ऐसे जानकारों को बुद्धिमत्ता के साथ उनके ही वैज्ञानिक शैली में दीन की दावत देते और उन्हें अल्लाह और उसके रसूल () की पहचान कराते लेकिन मुसलमानों ने इस काम पर तवज्जोह (ध्यान) नहीं दी बल्कि क़ुरआन की साइंसी उलूम (विधाओं) की तरफ़ इतनी स्पष्ट रहनुमाई के बावजूद रिवायती उलेमा ने उनकी मुख़ालिफत की (सिवा चंद गिने चुने नामों के) और साइंस पढ़ने वालों को जाहिल और मुल्हिद (अधर्मी या बेदीन) तक ठहराने लगे जिस का सिलसिला अब भी जारी है। इस तरह उलेमा ने विज्ञान से जुड़े एक बड़े वर्ग के यहाँ अपने प्रवेश का रास्ता ही बंद करा लिया और दावत के संभावित अवसर गंवा दिए। ज़ाहिर है कि एक उच्चतम शिक्षा प्राप्त व्यक्ति को अगर आप जाहिल कहेंगे या समझेंगे तो वह आपकी बात सुनना भी कब पसंद करेगा बल्कि उल्टा आप को जाहिल और दक़ियानूस (रूढ़िवादी) ठहराएगा। चुनाँचे यही होता भी रहा। दोनों ही वर्ग एक दूसरे से कट गए। मुसलमानों की तमाम तर तवज्जोह रिवायती विषयों की तरफ़ ही केंद्रित रही (इल्ला माशा अल्लाह) और साइंस के मैदान में हम काफ़ी पीछे रह गए।

साइंस की इफ़ादियत (उपयोगिता) अब खुलकर सामने आ चुकी है और उस से आंखें बंद करना अब मुम्किन (संभव) नहीं रहा। विज्ञान और प्रौद्योगिकी (Technology) अब दुनिया की ताक़त हैं और इन में पीछे रह जाने की वजह से ही आज मुसलमान पूरी दुनिया में मग़्लूब (परास्त) हैं। ईमान और आमाल की ख़राबी भी अपने उरूज (शिखर) पर है। इस तरह न अल्लाह (मुसब्बबुल असबाब) से ही तअल्लुक़ (संबंध) है और न ही असबाब-ए-क़ुव्वत (ताक़त के साधन) क़ाबू में हैं जबकि इज़्ज़त और सरबुलंदी के लिए यह दोनों ही मतलूब (वांछित) हैं। इस लिये ज़रूरी है कि मुसलमान, मुख्य रूप से रिवायती उलेमा साइंस और टेक्नोलॉजी के तईं अपने रवैये में घनात्मक परिवर्तन लाएं यद्यपि कि पहले की अपेक्षा इस में बहुत स्पष्ट अंतर देखने को मिलता है। किसी भी इल्म को हासिल करने में असल चीज़ हुस्न-ए-नीयत (अच्छी नीयत) है और दूसरी चीज़ उस इल्म की इफ़ादियत (उपयोगिता) है जिसे पेश-ए-नज़र (विचाराधीन) रखना चाहिए। मुस्लिम विज्ञान विशेषज्ञों को भी चाहिए कि वह क़ुरआन और हदीस से अपना रिश्ता जोड़ें, दावती फ़िक्र अपनाएं और अपने अपने विषय के ज्ञान का इस्लामीकरण करके दूसरों के लिए मार्गदर्शक बनें। अल्लाह हम सब को सही समझ एवं हिदायत दे (अर्थात निजात का सीधा रास्ता दिखाए) और अपनी हक़ीक़ी (वास्तविक) मा'रिफ़त नसीब करे। आमीन !

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