Monday, 29 May 2023

'ओहदे अमानत हैं, उनमें ख़ियानत न करें

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✍️डॉ. मो. वासे ज़फ़र

किसी भी समाज को ज़ुल्म, शोषण, अत्याचार, और नाइंसाफ़ी से मुक्त करने, उस में आपसी विश्वास एवं भरोसा, न्याय एवं निष्पक्षता, और अम्न, सुकून एवं शांति का वातावरण स्थापित करने में जिन मूल्यों (Values) का महत्वपूर्ण योगदान होता है, उनमें से एक ‘अमानतदारी’ (न्यासधारिता Trusteeship) भी है। यह एक ऐसा आधारभूत मूल्य है जिसे किसी समाज के प्रत्येक सदस्य में विकसित किए बिना उस समाज को भय, अविश्वास, बेईमानी (ख़ियानत), जालसाज़ी, धोखाधड़ी, भ्रष्टाचार, शोषण एवं अत्याचार जैसी बुराइयों से मुक्त नहीं किया जा सकता तथा सभी प्रकार के वित्तीय संसाधनों की प्रचुरता एवं सांसारिक सुख के साधनों की उपस्थिति के बावजूद उस में चैन व सुकून एवं शांति की ज़िंदगी गुज़ारना संभव नहीं बनाया जा सकता। इसलिए, हर युग और हर समाज में, चाहे उसका संबंध किसी भी धर्म और संस्कृति से हो, अमानतदारी को पसंद किया गया है। इस्लाम चूंकि दीन-ए-फ़ितरत (प्राकृतिक धर्म) है और दुनिया को ज़िंदगी गुज़ारने के लिए एक बेहतर जगह बनाना (To make the world a better place for living) इसके लक्ष्यों में से एक है, इस लिए इंसानियत (मानवता) की इस आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए, इस धर्म में अमानतदारी को एक महत्वपूर्ण स्थान प्रदान किया गया है। अल्लाह के रसूल हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम (स.अ.व.) ने अमानतदारी को ईमान का एक अनिवार्य हिस्सा बताया है। आप (ﷺ) अपने ख़ुत्बों (व्याख्यानों) में अक्सर कहा करते थे;

"لَا إِيمَانَ لِمَنْ لَا أَمَانَةَ لَهُ وَلَا دِينَ لِمَنْ لَا عَهْدَ لَهُ" (مسند الإِمام أحمد بن حنبلؒ، مكتبة دار السلام، الرياض، الطبعة الأولى ٢٠١٣م، رقم الحديث ١٢٣٨٣) 

अर्थात "उसका कोई ईमान नहीं जो अमानतदार नहीं, और उसका कोई दीन (धर्म) नहीं जो ‘अहद (वचन) का पाबंद नहीं।" (मुसनद अहमद, मक्तबा दारुस-सलाम, रियाज़, प्रथम संस्करण 2013, हदीस संख्या 12383, अनस बिन मलिक द्वारा वर्णित)।

पवित्र क़ुरआन में भी अमानत की अदायगी पर बहुत बल (ज़ोर) दिया गया है। ईश्वर-अल्लाह का फ़रमान है:

إِنَّ اللهَ يَأْمُرُكُمْ أَن تُؤَدُّوا الْأَمَانَاتِ إِلَىٰ أَهْلِهَا وَإِذَا حَكَمْتُم بَيْنَ النَّاسِ أَن تَحْكُمُوا بِالْعَدْلِ ۚ إِنَّ اللهَ نِعِمَّا يَعِظُكُم بِهِ ۗ إِنَّ اللهَ كَانَ سَمِيعًا بَصِيرًا ه (النساء: ٥٨)

अर्थात "बेशक अल्लाह तुम्हें हुक्म देता है कि तुम अमानतें उनके हक़दारों तक पहुँचाओ, और जब लोगों के बीच फ़ैसला करो तो अद्ल व इन्साफ़ के साथ करो, यक़ीनन (निःसंदेह) जो कुछ अल्लाह तुम्हें करने की नसीहत करता है वह बहुत बेहतर चीज़ है। बेशक अल्लाह सब कुछ सुनता और देखता है।" [पवित्र क़ुरआन, सूरह अल-निसा' 4: 58]

क़ुरआन का यह भी ए’लान (घोषणा) है:

إِنَّ اللهَ لَا يُحِبُّ الْخَائِنِينَ ﴿الانفال: ٥٨)

"यक़ीनन अल्लाह ख़ियानत (बेईमानी, विश्वासघात) करने वालों को पसंद नहीं करता।" [पवित्र क़ुरआन, सूरह अल-अनफ़ाल 8: 58]

इसके साथ ही क़ुरआन में अमानतदारों के लिए जन्नत की ख़ुशख़बरी दी गई है, जो बड़ी कामयाबी की ज़मानत (गारंटी) है। ईश्वरीय संदेश है:

وَالَّذِينَ هُمْ لِأَمَانَاتِهِمْ وَعَهْدِهِمْ رَاعُونَ ه وَالَّذِينَ هُم بِشَهَادَاتِهِمْ قَائِمُونَ ه وَالَّذِينَ هُمْ عَلَىٰ صَلَاتِهِمْ يُحَافِظُونَ ه أُولَٰئِكَ فِي جَنَّاتٍ مُّكْرَمُونَ ه (المعارج: ٣٢-٣٥)

"और वे जो अपने पास रखी गई अमानतों की हिफ़ाज़त और अपने ‘अहद (वचन) की पाबंदी का ख़याल रखते हैं, और जो अपनी गवाहियों में सच्चाई पर क़ायम रहते हैं, और जो अपनी नमाज़ों की हिफ़ाज़त करते हैं। यही लोग हैं जो इज़्ज़त के साथ जन्नत के बाग़ों में रहेंगे।" [पवित्र क़ुरआन, सूरह अल-म'आरिज 70: 32-35]

इन उपदेशों से यह पता चलता है कि अमानतदारी का गुण ईश्वर-अल्लाह और उसके रसूल (स.अ.व.) की नज़र में कितना महत्वपूर्ण और पसंदीदा चीज़ है। लेकिन दूसरी क़ौमों का तो क्या गिला-शिकवा (आलोचना) किया जाए, ख़ुद मुसलमानों के अंदर यह गुण अब दुर्लभ होता जा रहा है। अवाम तो अवाम, शिक्षित और विशिष्ट वर्ग (ख़्वास) के बीच भी यह गुण अब विलुप्त होता जा रहा है जिसके कारण पूरा समाज फ़साद (बिगाड़) का शिकार हो रहा है। इसका एक मुख्य कारण अल्लाह और उसके रसूल (स.अ.व.) के आदेशों के प्रति हमारी बेवफ़ाई और इस्लामी मूल्यों से हमारा आपराधिक विचलन है। इसका दूसरा कारण इस्लामी शिक्षाओं से दूरी की वजह से 'अमनातदारी' की आधी-अधूरी समझ और त्रुटिपूर्ण अवधारणा है। सामान्य तौर पर, अमानत से तात्पर्य किसी ऐसी चीज़ से लिया जाता है जिसका किसी को ज़िम्मेदार और अमीन (अमनातदार) बनाया जाए या जिसके संबंध में किसी पर भरोसा किया जाए। इसलिए ‘अमनातदारी’ के संदर्भ में लोगों का दिमाग़ सिर्फ़ इस तरफ़ जाता है कि अगर किसी ने हमारे पास कुछ रूपया या माल-ओ-असबाब (धन-सामग्री) या कोई और क़ीमती चीज़ रख छोड़ा है तो हम उसके अमीन (Trustee) हैं और जब वह उसे वापस मांगे तो बग़ैर किसी कमी के हम उसे वापस कर दें। 

निस्संदेह (बेशक) यह भी अमानतदारी है, लेकिन इस्लाम में ‘अमानतदारी’ की अवधारणा (तसव्वुर) यहीं तक सीमित नहीं है, बल्कि मानव जीवन के सभी क्षेत्रों पर हावी है। 'अमानत' वास्तव में एक व्यापक अर्थ वाला शब्द है, जिसके दाइरे (परिधि) में अल्लाह-ईश्वर के वह सभी हुक़ूक़ (Rights) भी आते हैं जो उसने अपने बन्दों के ज़िम्मे लगाए गए हैं, जैसे कि नमाज़, रोज़ा, हज्ज, ज़कात, कफ़्फ़ारा (किसी गुनाह से शुद्धि के लिए किया जाने वाला कृत्य), नज़्र (मन्नत), क़ुर्बानी आदि और बन्दों के आपस के वे सभी हुक़ूक़ (अधिकार) भी इसमें शामिल हैं जो एक-दूसरे के ज़िम्मे समझे जाते हैं, जिन्हें ''हुक़ूक़-उल-'इबाद" (मनुष्यों का आपसी अधिकार) कहा जाता है। सूरह अल-अनफ़ाल की यह आयत इस दृष्टिकोण को इंगित करती है: 

يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُوا لَا تَخُونُوا اللهَ وَالرَّسُولَ وَتَخُونُوا أَمَانَاتِكُمْ وَأَنتُمْ تَعْلَمُونَ ه (الانفال: ٢٧)

"ऐ लोगो जो ईमान लाए हो! ख़ियानत न करो अल्लाह की और रसूल की, और न ही ख़ियानत करो अपनी अमानतों में जब कि तुम जानते हो।” [पवित्र क़ुरआन, सूरह अल-अनफ़ाल 8: 27]

यहाँ अल्लाह और उसके रसूल (ﷺ) की ख़ियानत करने से बाज़ रहने (बचने) से तात्पर्य उनके हुक़ूक़ (अधिकारों) को पामाल (नष्ट) करने से बचना है। वास्तव में देखा जाए तो इंसान की संपत्ति, उसके संसाधन और उसका स्वास्थ्य, बल्कि उसका पूरा जीवन ही, अल्लाह की अमानत है, क्योंकि अल्लाह का फ़रमान है: 

إِنَّ اللهَ اشْتَرَىٰ مِنَ الْمُؤْمِنِينَ أَنفُسَهُمْ وَأَمْوَالَهُم بِأَنَّ لَهُمُ الْجَنَّةَ ۚ  (التوبة: ١١١)

अर्थात "बेशक अल्लाह ने ईमानवालों (मुसलमानों) से उनकी जान और उनकी सम्पत्तियों को इस बात के बदले में ख़रीद लिया है कि उन्हें जन्नत (स्वर्ग) मिलेगी।” [पवित्र क़ुरआन, अल-तौबा 9: 111]

जब जान और माल दोनों बिक गए, तो अब जो ये चीज़ें हमारे पास मौजूद हैं वह अल्लाह की अमानत ही हुईं और अल्लाह ने अपने फ़ज़्ल (कृपा) से हमें उनसे लाभान्वित होने का अधिकार दे रखा है, तो उनके उपयोग में अल्लाह की मंशा (रज़ा-मंदी) का ख़्याल रखना वाजिब है।

इसी तरह, अमानतदारी की अवधारणा राजनीतिक और प्रशासनिक मामलों में भी लागू होती है; प्रत्येक छोटा-बड़ा पद एक अमानत है, और एक लिपिक (क्लर्क) से लेकर राष्ट्रपति तक, प्रत्येक छोटे-बड़े अधिकारी, प्रशासक, राजा, महाराजा, राष्ट्राध्यक्ष, मंत्री सभी अमानतों के संरक्षक हैं। उन पर लाज़िम (अनिवार्य) है कि जो ‘ओहदे उन्होंने अपने ज़िम्मे लिए हैं उनकी ज़िम्मेदारी शरी’अत-ए-इस्लामिया (इस्लामी धर्मशास्त्र) के दिए गए उसूलों (सिद्धांतों) की रौशनी में पूरी करें, उनसे जनता के जो भी अधिकार जुड़े हैं उनका ख़याल (ध्यान) रखें और उनमें किसी प्रकार की ख़ियानत (धोखाधड़ी, भ्रष्टाचार, या विश्वासघात) न करें। उनमें जो भी ख़ियानत करेगा, वह गुनहगार (दोषी) क़रार पाएगा और हिसाब के वक़्त पकड़ा जाएगा। इसी तरह, मस्जिदों के मुतवल्ली (प्रबंधकर्ता), इमाम और मुअज़्ज़िन, मदरसों के मुदर्रिसीन (गुरुजन) एवं मुहतमिम (व्यवस्थापक), ‘असरी तालीमी इदारों (समकालीन शिक्षण संस्थानों) के शिक्षकगण एवं प्रमुख, दारुल-क़ज़ा (न्यायालय) के क़ाज़ी (न्यायाधीश), बैतुलमाल (सार्वजनिक कोष) के निगराँ (संरक्षक), औक़ाफ़ (धर्म-न्यास) के ज़िम्मेदारान (अधिकारीगण), और फ़लाही इदारों (कल्याणकारी संस्थानों) के सेक्रेटरी (सचिव) एवं मुन्तज़िमीन (संचालकगण) सभी अमानतदार अर्थात अमानतों के संरक्षक हैं। इन सभी के लिए ज़रूरी है कि अपने अधिकार क्षेत्र में आने वाली ज़िम्मेदारियों को विनम्रता, उदारता एवं उत्कृष्टता के साथ निभाएं, अन्यथा अल्लाह के सामने जवाबदेही के लिए तैयार रहें।

‘ओहदों का अमानत होना केवल तार्किक रूप से ही नहीं बल्कि रसूल-ए-पाक (स.अ.व.) के कथनों से स्पष्ट रूप से साबित है। मशहूर सहाबी अबूज़र र. ने एक बार आप (ﷺ) से इमारत (हुकूमती ‘ओहदे) की ख़्वाहिश ज़ाहिर की तो आप (ﷺ)  ने इरशाद फ़रमाया:

”يَا أَبَا ذَرٍّ، إِنَّكَ ضَعِيفٌ، وَإِنَّهَا أَمَانَةُ، وَإِنَّهَا يَوْمَ الْقِيَامَةِ خِزْيٌ وَنَدَامَةٌ، إِلَّا مَنْ أَخَذَهَا بِحَقِّهَا، وَأَدَّى الَّذِي عَلَيْهِ فِيهَا ۔“ (صحیح مسلمؒ، دار السلام للنشر والتوزيع، الرياض، الطبعة الثانية ٢٠٠٠م، رقم الحديث ٤۷۱۹) 

अर्थात् “ऐ अबूज़र ! तू कमज़ोर है और निस्संदेह यह (इमारत) एक अमानत है और यह क़यामत के दिन रुसवाई और शर्मिंदगी (का साधन) है सिवाए उस व्यक्ति के जिसने इसके हुक़ूक़ (कर्तव्य) पूरे किए और इस संबंध में उस पर डाली गई ज़िम्मेदारियों को अदा किया।” [सही मुस्लिम, मक्तबा दारुस-सलाम, रियाज़, 2000, हदीस संख्या 4719, अबूज़र र. द्वारा वर्णित]

इस हदीस में, अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने ‘ओहदों को न केवल एक अमानत के रूप में वर्णित किया, बल्कि यह भी संकेत दिया कि जो व्यक्ति किसी पद (‘ओहदे) से संबंधित ज़िम्मेदारियों को पूरा करने की क्षमता नहीं रखता हो, उसे उस पद को स्वीकार करने से बचना चाहिए क्योंकि आख़िरत (परलोक) में यह उसकी रुसवाई और शर्मिंदगी का कारण बन सकता है। अल्लाह रब्बुल-इज़्ज़त (परमप्रधान) रोज़-ए-जज़ा (कर्मों के हिसाब एवं फल के दिन) को एक एक ‘ओहदेदार (पदाधिकारी) और ज़िम्मेदार से उसकी ज़िम्मेदारियों के संबंध में हिसाब लेने वाला है। नबी-ए-करीम (ﷺ) का इरशाद (फ़रमान) है:

”أَلَا كُلُّكُمْ رَاعٍ، وَكُلُّكُمْ مَسْئُولٌ عَنْ رَعِيَّتِهِ، فَالْأَمِيرُ الَّذِي عَلَى النَّاسِ رَاعٍ، وَهُوَ مَسْئُولٌ عَنْ رَعِيَّتِهِ، وَالرَّجُلُ رَاعٍ عَلَى أَهْلِ بَيْتِهِ، وَهُوَ مَسْئُولٌ عَنْهُمْ، وَالْمَرْأَةُ رَاعِيَةٌ عَلَى بَيْتِ بَعْلِهَا وَوَلَدِهِ، وَهِيَ مَسْئُولَةٌ عَنْهُمْ، وَالْعَبْدُ رَاعٍ عَلَى مَالِ سَيِّدِهِ وَهُوَ مَسْئُولٌ عَنْهُ، أَلَا فَكُلُّكُمْ رَاعٍ، وَكُلُّكُمْ مَسْئُولٌ عَنْ رَعِيَّتِهِ -“ (صحيح مسلمؒ، رقم الحديث ٤٧٢٤) 

(अर्थ): “सुन रखो ! तुम में से हर व्यक्ति निगराँ (Guardian या Custodian) है और हर एक से उसके अधीनस्थों के बारे में पूछताछ की जाएगी; लोगों का अमीर (शासक) उनका निगराँ (संरक्षक) है और उससे उसकी रि'आया (प्रजा) के बारे में पूछताछ की जाएगी, और पुरुष अपने परिवार का निगराँ है और उससे उनके बारे में पूछताछ की जाएगी, और महिला अपने पति के घर और उसके बच्चों की संरक्षक (देखभाल एवं पालन-पोषण करने वाली) है, उससे उनके बारे में पूछताछ की जाएगी, और एक ग़ुलाम अपने मालिक की संपत्ति का निगराँ है, उससे उसके बारे में पूछताछ की जाएगी, इसलिए तुम में से प्रत्येक व्यक्ति एक निगराँ है और उससे उसके अधीनस्थों के बारे में पूछताछ की जाएगी।" [सही मुस्लिम,  हदीस संख्या 4724, ‘अब्दुल्लाह इब्ने ‘उमर र. द्वारा वर्णित]

एक अन्य हदीस में इन सवालों के स्वरूप को भी स्पष्ट किया गया है। पवित्र पैग़म्बर (ﷺ) ने फ़रमाया:

’’إِنَّ اللهَ سَائِلٌ کُلَّ رَاعٍ عَمَّا اسْتَرْعَاہُ اَحَفَظَ اَمْ ضَیَّعَ“ (الإحسان في تقريب صحيح ابن حبانؒ، دار المعرفة، بيروت، لبنان، الطبعة الأولى ٢٠٠٤م، رقم الحديث ٤٤٩٢، بروایت انسؓ)۔

(अर्थ): "बेशक अल्लाह त’आला हर निगराँ (संरक्षक) से उसकी निगरानी के बारे में पूछेगा कि क्या उसने उसकी हिफ़ाज़त (रक्षा) की या उसे ज़ाए' (बर्बाद) कर दिया।" [सही इब्न-ए-हिब्बान, दार-अल-मा'रिफ़ह, बेरुत, लेबनान, प्रथम संस्करण 2004, हदीस संख्या 4492, हज़रत अनस र. द्वारा वर्णित]

सामाजिक, राजनीतिक और प्रशासनिक मामलों में ‘अमानतदारी’ का यही वह तसव्वुर (अवधारणा) है जो इस्लामी और ग़ैर-इस्लामी समाजों और शासन प्रणालियों के बीच भेद करता है। इस्लामी व्यवस्था में जहां पदों और ज़िम्मेदारियों को अमानत के रूप में देखा जाता है, वहीं ग़ैर-इस्लामी व्यवस्था में उन्हें प्राधिकार या विशेषाधिकार (Privilege) माना जाता है, जो ईश्वर (अल्लाह) के प्रति जवाब-दिही (Accountability) का तसव्वुर (Concept) नहीं होने के कारण अनिवार्य रूप से ख़ियानत (बेईमानी या भ्रष्टाचार) की ओर ले जाता है। रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के फ़रमान उन लोगों के बारे में बहुत सख़्त हैं जो सरकारी पदों पर रह कर न्याय एवं निष्पक्षता का व्यवहार नहीं करते, ‘अवाम (जनसाधारण) के जो अधिकार उनसे जुड़े हैं उनके संदर्भ में अपने दायित्वों का समुचित निर्वहन नहीं करते, और उनके साथ उपकार एवं भलाई का मामला नहीं करते। पैग़म्बर (स.अ.व.) ने फ़रमाया: 

’’مَا مِنْ عَبْدٍ اسْتَرْعَاہُ اللهُ رَعِیَّةً فَلَمْ یَحُطْھَا بِنَصِیْحَةٍ اِلَّا لَمْ یَجِدْ رَائِحَةَ الْجَنَّةِ“ (صحيح البخاري، مكتبة الرشد، الرياض، الطبعة الثانية ٢٠٠٦م، رقم الحديث ٧١٥٠، بروایت معقل بن یسارؓ)۔

(अर्थ): "जब अल्लाह त’आला किसी बंदे को किसी प्रजा का शासक  (या प्रशासक) बना देता है और वह भलाई के साथ उसकी रक्षा नहीं करता है, तो वह जन्नत (स्वर्ग) की ख़ुशबू (सुगंध) भी नहीं पाएगा।" [सही अल-बुख़ारी, मक्तबा अल-रुश्द, रियाज़, द्वितीय संस्करण 2006, हदीस संख्या 7150, मा’क़िल बिन यसार र. द्वारा वर्णित]

एक हदीस में है कि पवित्र पैग़म्बर (ﷺ) ने फ़रमाया:

’’مَا مِنْ وَالٍ یَلِی رَعِیَّةً مِنَ الْمُسْلِمِیْنَ فَیَمُوتُ وَ ھُوَ غَاشٌّ لَھُمْ اِلَّا حَرَّمَ اللهُ عَلَیْہِ الْجَنَّةَ -“ (صحیح البخاری، رقم الحديث ٧١٥١، بروایت معقل بن یسارؓ)۔

(अर्थ): "यदि कोई व्यक्ति मुसलमानों में से कुछ लोगों का वाली (हाकिम या प्रशासक) बनाया गया और उसने उनके मामले में ख़ियानत की और उसी हालत (स्थिति) में मर गया (अर्थात अपने पाप का प्रायश्चित भी न कर सका), तो अल्लाह उस पर जन्नत को हराम कर देता है।" [सही अल-बुख़ारी, हदीस संख्या 7151, मा’क़िल बिन यसार र. द्वारा वर्णित]

यहां ख़ियानत से तात्पर्य ‘ओहदे (पद) की ज़िम्मेदारियों (कर्तव्यों) को पूरा न करना है जिसके कई रूप हो सकते हैं; उदाहरण के तौर पर, उनके हुक़ूक़ (अधिकार) पूर्ण रूप से नहीं दिए, या रि'आया (प्रजा) का जो कार्य उसके ज़िम्मे था उसे नहीं किया, या जितना वक़्त हुकूमत (सरकार) की तरफ़ से रि'आया के लिए आवंटित था उस में कमी कर दी या दूसरे अप्रासंगिक कार्यों में बर्बाद कर दिया और काम का हक़ अदा नहीं किया, या संबंधित विभाग के सामान और जमा पूंजी, जो वास्तव में सार्वजनिक संपत्ति हैं, का अनावश्यक रूप से या आवश्यकता से अत्यधिक उपयोग किया, या अपने निर्धारित वेतन (Pay) और भत्ते (Allowances) से अधिक पैसा कोषागार से ले लिया आदि। अंतिम मामले के संबंध में पवित्र पैगंबर (ﷺ) का एक स्पष्ट बयान है कि उन्होंने फ़रमाया:

’’مَنْ اسْتَعْمَلْنَاهُ عَلَى عَمَلٍ فَرَزَقْنَاهُ رِزْقًا فَمَا أَخَذَ بَعْدَ ذَلِكَ فَهُوَ غُلُولٌ“ (سنن أبي داوُد، دار الحضارة للنشر والتوزيع، الرياض، الطبعة الثانية ٢٠١٥م، رقم الحديث ٢٩٤٣، بروايت بريدهؓ)

(अर्थ): "जिस किसी को हम किसी कार्य के लिए ज़िम्मेदार बनाएं और हम उसके लिए एक निश्चित मात्रा में जीविका (वेतन) निर्धारित कर दें, फिर वह अपने निर्धारित हिस्से से जो अधिक लेगा वह ख़ियानत है।" [सुनन अबी दाऊद,  दार अल-हिज़ारह, रियाज़, द्वितीय संस्करण 2015, हदीस संख्या 2943, बुरैदह र. द्वारा वर्णित]

यहाँ यह भी स्पष्ट कर दूं कि जो सरकारी पद वादों के आधार पर लिए जाते हैं, जैसा कि हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था में रिवाज (चलन) है, उनके उत्तरदायित्वों से मुँह मोड़ना दोहरे वबाल (पाप या गुनाह) का कारण होता है; एक तो यह ख़ियानत है और दूसरे वादा ख़िलाफ़ी (अर्थात वचन भंग करना) भी है।

इसी प्रकार रिश्वत-ख़ोरी (घूसख़ोरी) के माध्यम से संबंधित संस्था और जनता के हितों को नुक़्सान (क्षति) पहुँचाना भी ख़ियानत का एक रूप है। साथ ही किसी सरकारी विभाग का कर्मचारी अगर रिश्वत (घूस) ले कर कोई ऐसा काम करे जो सरकार द्वारा निर्धारित नियमों और विनियमों के विरुद्ध हो, तो यह भी ख़ियानत है क्योंकि जिस काम के लिए सरकार ने उसे नियुक्त किया था और जिस काम के लिए उसे वेतन भुगतान किया जाता है, वह काम उसने नहीं किया। और यदि घूस किसी वैध कार्य के लिये लिया, तो जिस से घूस ली गई है उस पर यह अत्याचार (ज़ुल्म) भी है। एक हदीस में है: 

’’لَعَنَ رَسُولُ اللهِ صَلَّى اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ الرَّاشِي وَالْمُرْتَشِي“ (سنن أبي داوُد، رقم الحديث ٣٥٨٠)

अर्थात "अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने रिश्वत (घूस) देने वाले और रिश्वत लेने वाले (दोनों) पर ला'नत (अभिशाप) की है।" (सुनन अबी दाऊद, हदीस संख्या 3580, अब्दुल्लाह इब्ने ‘अम्र र. द्वारा वर्णित) 

उनकी ओर से यह हदीस भी है:

’’الرَّاشِي وَالْمُرْتَشِي فِي النَّار“ (كنز العمال في سنن الاقوال والافعال، بيت الأفكار الدولية، لبنان، الطبعة الثانية ٢٠٠٥، رقم الحديث ١٥٠٧٧)

अर्थात "रिश्वत देने वाला और रिश्वत लेने वाला दोनों जहन्नम (नरक) में हैं"। [कंज़ुल-‘उम्माल फ़ी सुनन अल-अक़्वाल वल-अफ़'आल, बैत अल-अफ़्कार अद-दौलियह, लेबनान, 2005, संख्या 15077, अब्दुल्लाह इब्ने ‘अम्र र. द्वारा वर्णित]

इसलिए आख़िरत (परलोक) में विश्वास (ईमान) रखने वाले और किसी सांसारिक पद पर आसीन होने वाले प्रत्येक व्यक्ति को न केवल रिश्वत लेने से बचना चाहिए बल्कि किसी प्रकार के तोहफ़े (उपहार) क़ुबूल (स्वीकार) करने से भी बचना चाहिए क्योंकि आमतौर पर वे किसी मक़्सद (उद्देश्य) के तहत ही दिए जाते हैं और इंसान उन से प्रभावित हुए बग़ैर नहीं रहता। रसूलुल्लाह (ﷺ) ने भी एक सरकारी कर्मचारी द्वारा अपने पद से जुड़े कर्तव्यों का निर्वहन करते हुए किसी से उपहार स्वीकार करने को सख़्त नापसंद किया है। आप ने एक व्यक्ति को ज़कात, जिज़्या और टैक्स आदि वसूल करने के लिए अधिकारी (Tax Collector)  के रूप में नियुक्त किया। अपने काम को पूरा करने के बाद जब वह रसूलुल्लाह (ﷺ) की सेवा में लौटे, तो कहा: ऐ अल्लाह के रसूल (हे ईश्वर के दूत)! यह माल आपका (अर्थात बैतुल-माल या कोषागार का) है और यह माल मुझे तोहफ़े में दिया गया है। उनकी इस बात पर पवित्र पैग़म्बर (ﷺ) सख़्त नाराज़ हुए और फ़रमाया: 

’’أَفَلَا قَعَدْتَّ فِي بَیْتِ أَبِیْکَ وَ أُمِّکَ، فَنَظَرْتَ أَیُھْدٰی لَکَ أَم لَا-“ (صحیح البخاری، جزء من رقم الحديث ٦٦٣٦، بروایت ابوحمید ساعدیؓ)۔

(अर्थ): "तुम अपने माता-पिता के घर में ही क्यों नहीं बैठे रहे और फिर देखते कि तुम्हें कोई तोहफ़े देता है या नहीं?" आप (ﷺ) इतने पर ही नहीं रुके, बल्कि मस्जिद में जा कर ख़ुत्बा (व्याख्यान) दिया और अल्लाह की तारीफ़ बयान करने के बाद मजलिस-ए-'आम (आम-सभा) में भी उन्हीं शब्दों को दोहराया जो ऊपर उद्‌धृत (Quote) किए गए और लोगों को  ख़ियानत के वबाल (अभिशाप) से डराया। [सही अल-बुख़ारी, हदीस संख्या 6636, अबू हमीद सा’इदी र. द्वारा वर्णित]

ख़ियानत का एक और रूप है, किसी संगठन, संस्था या विभाग के प्रमुख को ग़लत सलाह (मशवरा) देना है। एक अवसर पर, पवित्र पैग़म्बर (ﷺ) ने फ़रमाया:

’’ اَلْمُسْتَشَارُ مُؤتَمَنٌ “ (سنن ابن ماجہ، دار الحضارة للنشر والتوزيع، الرياض، الطبعة الثانية ٢٠١٥م، رقم الحديث ٣٧٤٥، بروایت ابوہریرہؓ)۔

(अर्थ): "जिससे सलाह मांगी जाए है, वह अमानतदार है"। [सुनन इब्ने माजह, दार अल-हिज़ारह, रियाज़, द्वितीय संस्करण 2015, हदीस संख्या 3745, अबू हुरैरह द्वारा वर्णित]

अर्थात उसे अमनातदारी को ध्यान में रखते हुए सही और उपयोगी सलाह देनी चाहिए। जिस तरह अमानत में ख़ियानत करना जाइज़ (वैध एवं उचित) नहीं है, वैसे ही किसी को गलत सलाह देना भी जाइज़ नहीं है। यह हदीस सीधे तौर पर सरकारी विभागों और ग़ैर-सरकारी संगठनों के सलाहकार बोर्डों (Advisory Boards) पर भी लागू होगी, यानी वे सभी अमनातदार माने जाएंगे। उदाहरण के लिए कैबिनेट, संसद, संसदीय समिति, विधानसभा, विधान परिषद, जिला परिषद, पंचायत समिति, विश्वविद्यालयों की अकादमिक परिषद (Academic Council), सीनेट (Senate) और सिंडिकेट (Syndicate) के सदस्यों के साथ-साथ मस्जिदों, मदरसों, औक़ाफ़ (धार्मिक न्यासों),  धर्मस्व समितियों आदि के सदस्यगण, ये सभी अमनातदार हैं और उनसे उनकी अमनातों के बारे में पूछा जाएगा। इन सभी को चाहिए कि व्यक्तिगत स्वार्थ से ऊपर उठकर अपनी अपनी संस्थाओं के हित में और क़ौम-ओ-मिल्लत (राष्ट्र एवं धर्म समूहों) के कल्याण को ध्यान में रखते हुए अपने प्रधान या उच्च अधिकारियों को सलाह दिया करें।

ख़ियानत का एक और भी रूप है; वह है कोई काम (Assignment), पद (Post) या ज़िम्मेदारी (Responsibility) किसी ऐसे व्यक्ति को सौंपना जो उसके योग्य नहीं हो। अबू हुरैरह र. से रिवायत (रिपोर्ट वर्णित) है कि अल्लाह के रसूल (ﷺ) ने फ़रमाया: 

"إِذَا ضُيِّعَتِ الْأَمَانَةُ ، فَانْتَظِرِ السَّاعَةَ ، قَالَ : كَيْفَ إِضَاعَتُهَا يَا رَسُولَ اللهِ؟ قَالَ : إِذَا أُسْنِدَ الْأَمْرُ إِلَى غَيْرِ أَهْلِهِ فَانْتَظِرِ السَّاعَةَ" (صحيح البخاري، رقم الحديث ٦٤٩٦)

अर्थात, "जब अमानत ज़ाए' (बर्बाद) की जाए तो क़यामत का इंतज़ार (प्रतीक्षा) करो।" पूछा गया: ऐ अल्लाह के रसूल (ﷺ)! अमानत किस तरह बर्बाद की जाएगी? आप (ﷺ) ने फ़रमाया: "जब काम अयोग्य (Ineligible) एवं अक्षम (incompetent) लोगों को सौंप दिए जाएं, तो क़यामत का इंतज़ार करो।" [सही अल-बुख़ारी, हदीस संख्या 6496]

इस हदीस से बिल्कुल स्पष्ट है कि योग्य एवं सामथर्यवान (Competent) लोगों को छोड़ कर, नाअहलों (अक्षमों) को पद या ज़िम्मेदारी सौंपना भी एक प्रकार की ख़ियानत है और आज के दौर में तो यह एक बड़ा फ़ित्ना (आम विपदा) है कि सरकार के महत्वपूर्ण पद या तो संबंधों के आधार पर दिए जाते हैं या राजनीतिक संबद्धता के आधार पर या कभी इस में भाई-भतीजावाद का दख़्ल (प्रभाव) होता है तो कभी रिश्वतख़ोरी का। इस क्रम में उन लोगों के साथ अन्याय किया जाता है जो वास्तव में उस पद के योग्य होते हैं और अक्षमों को पद देने का दुष्परिणाम लंबे समय तक पूरी क़ौम को भुगतना पड़ता है। इसलिए हाकिम-ए-'आला (सर्वोच्च अधिकारी) को अपने अधिकार क्षेत्र में सबसे योग्य लोगों की तलाश करनी चाहिए और उन्हें ही प्रशासनिक शक्तियाँ एवं प्राधिकार सौंपने चाहिए और ऐसे लोगों को तो बिल्कुल नहीं सौंपना चाहिए जो पद के लालची हों। यह वह शिक्षा है जो हमें पवित्र पैग़म्बर (ﷺ) के जीवन से मिलती है। पवित्र पैग़म्बर (ﷺ) ने एक अवसर पर फ़रमाया:

’’لَنْ (أَوْ لَا) نَسْتَعْمِلُ عَلٰی عَمَلِنَا مَنْ أَرَادَہُ “ (صحیح البخاری، رقم الحديث ٢٢٦١، بروایت ابوموسیٰ اشعریؓ)۔

(अर्थ): "हम कभी भी किसी ऐसे व्यक्ति को पदाधिकारी नियुक्त नहीं करेंगे जो (स्वयं) पदाधिकारी बनना चाहता हो"। [सही अल-बुख़ारी, हदीस संख्या 2261, अबू मूसा अश’अरी द्वारा वर्णित] 

सही इब्ने हिब्बान के शब्द इस प्रकार हैं: 

’’اِنَّا وَ اللهِ لَا نُوَلِّی عَلٰی ھٰذَا الْعَمَلِ اَحَدًا سَاَلَہٗ، وَ لَا اَحَدًا حَرَصَ عَلَیْهِ“ (الإحسان في تقريب صحيح ابن حبان، دار المعرفة، بيروت، لبنان، الطبعة الأولى ٢٠٠٤م، رقم الحديث ٤٤٨١، بروایت ابوموسیٰ اشعریؓ)۔

(अर्थ): "अल्लाह की क़सम! हम इस काम का निगराँ (संरक्षक) किसी ऐसे व्यक्ति को मुक़र्रर (नियुक्त) नहीं करेंगे जो इसे मांगता हो, और न ही किसी ऐसे व्यक्ति को मुक़र्रर करेंगे जो इसका लोभ रखता हो। [सही इब्न-ए-हिब्बान, हदीस संख्या 4481, अबू मूसा अल-अश’अरी द्वारा वर्णित]

यहाँ एक बात को स्पष्ट करना आवश्यक प्रतीत होता है कि उपरोक्त हदीसों और नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के तर्ज़-ए-’अमल (व्यवहार) से (अर्थात् पद की माँग करने वाले या उसकी चाह रखने वालों को पद न देना) तो यह प्रतीत होता है कि कोई सरकारी पद की माँग स्वयं करना जाइज़ ही नहीं है लेकिन प्रजातांत्रिक व्यवस्था में तो बहुत से सरकारी पद (विभिन्न विभागों की नौकरियां आदि) बिना आवेदन के प्राप्त ही नहीं किए जा सकते, तो क्या हमें उन सभी को बिल्कुल त्याग देना चाहिए? ज़ाहिर है कि सरकारी नौकरी को बिल्कुल त्याग देने वाला विचार पूरी क़ौम-ओ-मिल्लत (राष्ट्र एवं धर्म समुदायों) को एक मुश्किल स्थिति में डालने के रूप में देखा जाएगा, तो इस संबंध में हमें इस्लामी धर्मशास्त्र के विद्वानों (फ़ुक़हा) के उन सिद्धांतों को ध्यान में रखना चाहिए जो उन लोगों ने सरकारी पदों के माँगने के औचित्य के संबंध में अपनाए हैं जिसका सारांश यह है कि सरकारी ‘ओहदा और मंसब (ऊँचा पद जिसके साथ कुछ विशिष्ट अधिकार भी प्राप्त हों) माँगना केवल उस स्थिति में जाइज़ है जब किसी व्यक्ति को लगता है कि उस पद के कर्तव्यों एवं ज़िम्मेदारियों को ठीक तौर से निभाने वाला कोई अन्य व्यक्ति मौजूद नहीं है और अपने बारे में उसे यह अनुमान हो कि वह इस ज़िम्मेदारी को अच्छी तरह से निभाने में सक्षम होगा और उसका इरादा (जिसे केवल अल्लाह ही बेहतर जानता है) धन और संपत्ति इकट्ठा करना न हो, बल्कि ख़ल्क़-ए-ख़ुदा (ईश्वर की सृष्टि, दुनियावाले या सर्व-साधारण) की सही सेवा और न्याय के साथ उनके अधिकारों की रक्षा हो। साथ ही, उसे किसी गुनाह (पाप) में पड़ने का ख़तरा भी न हो। फ़ुक़हा ने अपने इस मौक़िफ़ (विचार) पर सूरह यूसुफ़ की आयत 55 से इस्तिदलाल (तर्क) किया है, जिसमें यूसुफ़ अलैहिस्सलाम (अ.स.) का मिस्र के राजा से वित्तीय मामलों का प्राधिकार सौंपने का अनुरोध करने का उल्लेख किया गया है और यह राय क़ाइम (स्थापित) की है कि यूसुफ़ (अ.स.) का पद के लिए अनुरोध करना इन्हीं बुनियादों पर आधारित था। [मुफ़्ती मुहम्मद शफ़ी’, म’आरिफ़ुल क़ुरआन (उर्दू), मकतबा म’आरिफ़ुल क़ुरआन, कराची, 2008, खंड 5, पृष्ठ 90, 91]

इसी तरह जो लोग निज़ाम-ए-क़ज़ा (न्यायपालिका) या मंसब-ए-क़ज़ा (अधिनिर्णायक या न्यायाधीश) के पद से जुड़े हों, वे भी बदर्जा-ए-ऊला (पहले दर्जे में) अमानतदार हैं। उन पर यह ज़िम्मेदारी 'आइद (लागू) होती है कि राजनीतिक दबाव और निजी स्वार्थों से ऊपर उठकर क़ानूनों और सबूतों के आलोक में न्याय को स्थापित करें। यह कोई मामूली काम नहीं बल्कि एक बहुत बड़ी ज़िम्मेदारी है जिस पर देश में अमन-चैन की स्थापना निर्भर करती है, इस में ख़ियानत के कारण न्याय से वंचित लोग क़ानून को अपने हाथ में लेने के लिए मजबूर हो सकते हैं और विभिन्न प्रकार के फ़साद (उपद्रव) फैला कर देश के अमन-चैन को बिगाड़ सकते हैं जैसा कि वर्तमान वैश्विक परिदृश्य में परिलक्षित हो रहा है। ज़ाहिर है, यह इस्लाम के मुख्य लक्ष्यों में से एक अर्थात "दुनिया को ज़िंदगी गुज़ारने के लिए एक बेहतर जगह बनाना" के ख़िलाफ़ है, इस लिए इसमें ख़ियानत करना अल्लाह और उसके रसूल (ﷺ) को कैसे पसंद आ सकता है? यह भी एक सच्चाई है कि इस ज़िम्मेदारी को निभाना हर युग में एक कठिन कार्य रहा है। इसी लिए पैग़म्बर (ﷺ) ने फ़रमाया: 

”مَنْ جُعِلَ قَاضِيًا بَيْنَ النَّاسِ فَقَدْ ذُبِحَ بِغَيْرِ سِكِّينٍ“ (سنن أبي داؤد، رقم الحديث ٣٥٧٢، بروایت ابوہریرہؓ) 

(अर्थ): "जो व्यक्ति लोगों के बीच क़ाज़ी (न्यायाधीश) बना दिया गया (मानो) वह बिना छुरी के ज़ब्ह (गला काटकर क़त्ल) कर दिया गया।" [सुनन अबी दाऊद, हदीस संख्या 3572, अबू हुरैरह र. द्वारा वर्णित]

छुरी के बिना वध करने में, जानवर को कष्ट और पीड़ा निश्चित रूप से छुरी से वध करने से अधिक होगी। तो इस हदीस में, अल्लाह के रसूल (ﷺ) का तात्पर्य यह है कि जिसे क़ाज़ी (न्यायाधीश) बनाया गया, उसे इंतिहाई (अत्यधिक) मशक़्क़त (कठिनाई) और आज़माइश (परीक्षण) में डाल दिया गया। उन्होंने यह भी फ़रमाया:

"الْقُضَاةُ ثَلَاثَةٌ وَاحِدٌ فِي الْجَنَّةِ وَاثْنَانِ فِي النَّارِ فَأَمَّا الَّذِي فِي الْجَنَّةِ فَرَجُلٌ عَرَفَ الْحَقَّ فَقَضَى بِهِ وَرَجُلٌ عَرَفَ الْحَقَّ فَجَارَ فِي الْحُكْمِ فَهُوَ فِي النَّارِ وَرَجُلٌ قَضَى لِلنَّاسِ عَلَى جَهْلٍ فَهُوَ فِي النَّارِ" (سنن أبي داؤد، رقم الحديث ٣٥٧٣، بروایت بریدہؓ)

अर्थात, “क़ाज़ी तीन प्रकार के होते हैं; एक जन्नती (स्वर्गवासी) और दो जहन्नमी (नरकवासी)। रहा जन्नती तो वह ऐसा व्यक्ति होगा जिसने हक़ (सत्य) को जाना और उसी के मुवाफ़िक़ (अनुसार) निर्णय किया, और वह व्यक्ति जिसने हक़ (सत्य) को जाना और अपने निर्णय में ज़ुल्म (अन्याय) किया, वह  जहन्नमी है। और वह व्यक्ति जिसने नादानी (अज्ञानता) से लोगों का फ़ैसला किया वह भी जहन्नमी है।” [सुनन अबी दाऊद, हदीस संख्या 3573, बुरैदह र. द्वारा वर्णित]।

इस के विपरीत, हिकमत (बुद्धिमत्ता) और इंसाफ़ के साथ फ़ैसला करने वाले क़ाज़ी (मुंसिफ़) की पैग़म्बर (स.अ.व.) ने तारीफ़ भी की है। उन्होंने फ़रमाया: 

’’لَا حَسَدَ اِلَّا فِي اثْنَتَیْنِ: رَجَلٌ آتَاہُ اللهُ مَالًا فَسَلَّطَهُ عَلٰی ھَلَکَتِهِ فِي الْحَقِّ وَ آخَرُ آتَاہُ اللهُ حِکْمَةً فَھُوَ یَقْضِي بِھَا وَ یُعَلِّمُھَا-“ (صحیح البخاری، رقم الحديث ٧١٤١، بروایت عبد اللہ بن مسعودؓ)۔

(अर्थ): "ईर्ष्या (रश्क) केवल दो लोगों से की जानी चाहिए; एक वह व्यक्ति जिसे अल्लाह ने धन दिया फिर वह उसे हक़ (सच्चाई) के रास्ते में ख़र्च करता है और दूसरा वह व्यक्ति है जिसे अल्लाह ने हिकमत (क़ुरआन, हदीस और फ़िक़्ह का ज्ञान) दिया है और वह उसके अनुसार फ़ैसले करता है और उसकी ही लोगों को ता’लीम (शिक्षा) देता है।" [सही अल-बुख़ारी, हदीस संख्या 7141, अब्दुल्लाह बिन मस'ऊद द्वारा वर्णित]

एक दूसरी रिवायत में है कि आप (ﷺ) ने उनके संबंध में फ़रमाया:

 ’’الْمُقْسِطُونَ یَوْمَ الْقِیَامَةِ عَلٰی مَنَابِرٍ مِّنْ نُورٍ عَنْ یَّمِیْنِ الرَّحْمٰنِ، وَ کِلْتَا یَدَیْهِ یَمِیْنٌ، الْمُقْسِطُونَ عَلٰی اَہْلِیْھِمْ وَ اَوْلَادَھُمْ وَ مَا وَلُّوا-“ (صحیح ابن حبان، رقم الحديث ٤٤٨٤، بروایت عبداللہ بن عمرو بن العاصؓ)۔

(अर्थ): "(दुनिया में) में इंसाफ़ करने वाले लोग क़यामत के दिन रहमान (दयावान ईश्वर) के दाहिने तरफ़ नूर (प्रकाश) के मिम्बरों (मंचों) पर होंगे, हालांकि उस रहमान के दोनों तरफ़ दाहिने पक्ष हैं, वे लोग जो अपनी पत्नियों के साथ, और अपने बच्चों के साथ और जिस मु'आमले (काम) के वे निगराँ बनते हैं, उसके साथ न्याय (इंसाफ़) करते हैं।" [सही इब्न-ए-हिब्बान, हदीस संख्या 4484, अब्दुल्लाह बिन ‘अम्र बिन अल-‘आस द्वारा वर्णित]

इसी तरह एक रिवायत में है कि जिन सात क़िस्म के लोगों को अल्लाह पाक क़यामत के दिन अर्श (ईश्वरीय सिंहासन) के साए (छांव) में जगह देगा उनमें से एक 'आदिल हुक्मराँ (न्यायवान् शासक) भी होगा। [सही इब्न-ए-हिब्बान, हदीस संख्या 4486, अबू हुरैरह र. द्वारा वर्णित] 

सारी बातों का सारांश यह है कि आख़िरत (परलोक) में केवल वही लोग कामयाब एवं सम्मानित होंगे जिन्होंने इस संसार में अपने मंसब और ‘ओहदों (पदों) को अमानत समझ कर 'अद्ल-ओ-एहसान (न्याय एवं उपकार) के साथ अपने उत्तरदायित्वों (ज़िम्मेदारियों) का निर्वाह किया होगा, जो कि आसान कार्य नहीं है और जिस ने अपनी ज़िम्मेदारियों में ख़ियानत की होगी वह वहाँ अपमानित और रुस्वा किया जाएगा, और जहन्नम (नरक) उसका अंतिम ठिकाना होगा। इसलिए अव्वल दर्जे में (सर्वप्रथम) हमें जाह-तलबी (पद की लालसा) के रोग से ही ख़ुद को मुक्त करना चाहिए, जो प्राय: इस दुनिया में भी आज़माइश और रुस्वाई (बदनामी एवं बेइज़्ज़ती) का कारण बन जाता है जैसा कि आजकल सामान्य रूप से देखने को मिल जाता है और आख़िरत का मु’आमला तो दायित्वों के निर्वहन में कोताही (त्रुटि या उपेक्षा) की सूरत (स्थिति) में और भी गंभीर है।

रसूलुल्लाह (ﷺ) ने अपने प्यारे सहाबी अब्दुर्रहमान बिन समुरह र. को इन शब्दों में नसीहत फ़रमाई थी:

’’یَا عَبْدَ الرَّحْمَنِ بْنَ سَمُرَةَ ! لَا تَسْأَلِ الْاِمَارَةَ، فَاِنَّکَ اِنْ أُعْطِیتَھَا عَنْ مَسْأَلَةٍ وُکِلْتَ اِلَیْھَا، وََ اِنْ أُعْطِیتَھَا عَنْ غَیْرِ مَسْأَلَةٍ أُعِنْتَ عَلَیْھَا-“ (صحیح البخاری، رقم الحديث ٧١٤٨، بروایت عبد الرحمٰن بن سمرہؓ)۔

(अर्थ): ''ऐ अब्दुर्रहमान बिन समुरह! कभी इमारत (सरकार में कोई पद) की मांग मत करना, क्योंकि अगर तुम्हें यह मांगने के बाद मिलेगा तो तुम उसी के हवाले कर दिए जाओगे (अल्लाह पाक अपनी मदद तुम से उठा लेगा कि तू जाने तेरा काम जाने) और अगर वह पद तुम्हें बिना मांगे मिल गया तो उस (के दायित्वों के निर्वहन) में (अल्लाह की तरफ़ से) तुम्हारी मदद की जाएगी।" [सही अल-बुख़ारी, हदीस संख्या 7148, अब्दुर्रहमान बिन समुरह र. द्वारा वर्णित]

इस हदीस में एक महत्वपूर्ण बिंदु की तरफ़ इशारा किया गया है कि पद माँगने पर अल्लाह की तरफ़ से मदद भी उठ जाती है और इंसान आज़माइश (इम्तिहान) में डाल दिया जाता है और अगर पद बिना तलब किए (मांगे) मिलता है तो अल्लाह की मदद साथ होती है। इसलिए जहां तक मुम्किन (संभव) ​​हो स्वयं पद मांगने से हमें बचना चाहिए और जब सरकारी या मिल्ली (धर्म समुदाय) स्तर से किसी पद की पेशकश की जाए, तो हमें अपनी सलाहियत (क्षमता) और हालात (परिस्थितियों) को ध्यान में रखते हुए इस बात का आकलन करना चाहिए कि उसकी ज़िम्मेदारियों को हम कमा-हक़्क़हु (ठीक-ठीक जैसा कि उसका हक़ है) अदा कर सकेंगे या नहीं, अगर नहीं तो हमें वह मंसब (पद) स्वीकार ही नहीं करना चाहिए ताकि दुनिया और आख़िरत की रुस्वाई से सुरक्षित रह सकें और यदि हम स्वीकार करते हैं, तो हमें उस पद को अमानत समझ कर उसके उत्तरदायित्वों को पूरा करना चाहिए। हमें इस बात से डरना चाहिये कि कर्मों के हिसाब के दिन कहीं हम उन लोगों में शामिल न हों जिनके बारे में रसूल-ए-पाक (ﷺ) ने इन शब्दों में पेश-गोई (भविष्यवाणी) की है। 

’’وَیْلٌ لِلْاُمَرَاءِ، لَیَتَمَنَّیَنَّ اَقْوَامٌ اَنَّھُمْ کَانُوا مُعَلَّقِیْنَ بِذَوَائِبِھِمْ بِالثُّرَیَّا، وَ اَنَّھُمْ لَمْ یَکُوْنُوا وُلُّوْا شَیْئًا قَطُّ “ (صحیح ابن حبان، رقم الحديث ٤٤٨٣، بروایت ابوہریرہؓ)۔

(अर्थ): "सरकारी अह्ल-कारों (कर्मियों या अधिकारियों) के लिए ख़राबी है, जल्द ही कुछ लोग इस बात की आरज़ू (तमन्ना) करेंगे कि काश उन्हें उनके बालों के साथ औज-ए-सुरैय्या (आसमान की ऊँचाई) से लटका दिया जाता, लेकिन उन्हें किसी चीज़ का अह्ल-कार (कारिंदा या अधिकारी) नियुक्त नहीं किया जाता।" [सही इब्न-ए-हिब्बान, हदीस संख्या 4483, अबू हुरैरह र. द्वारा वर्णित]

अल्लाह से दुआ है कि वह इस सियह-कार (गुनहगार) की लग़्ज़िशों (ग़लतियों) को भी माफ़ करे और अपनी मंशा (रज़ा) के मुताबिक़ (अनुसार) बची हुई ज़िंदगी गुज़ारने की तौफ़ीक़ दे। साथ ही उम्मत के अंदर अमानतदारी के मिटते हुए एहसास को बेदार करे (जगाए) और इस संबंध में राक़िम (लेखक) की इस हक़ीर (मामूली) सी कोशिश (प्रयास) को क़ुबूल (स्वीकार) करे। आमीन!

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