Wednesday, 3 January 2024

ज़बरदस्ती का इस्लाम अल्लाह को पसंद नहीं!

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✍️डॉ. मो. वासे ज़फ़र


इस्लाम के संदर्भ में अक्सर यह भ्रांति फैलाई जाती रही है कि यह धर्म तलवार के ज़ोर पर फैला है और लोग ज़बरदस्ती इस्लाम क़ुबूल करने पर मजबूर किए गए हैं हालांकि धर्म और आस्था का संबंध दिल से है और किसी को मजबूर कर के उसके दिल में बैठी आस्था को नहीं बदला जा सकता है। मजबूर करने का नतीजा (परिणाम) यही हो सकता है कि एक व्यक्ति लोगों को दिखाने के वास्ते या किसी अपेक्षित ज़ुल्म या ख़तरे से बचने के लिए तात्कालिक तौर पर खु़द को किसी धर्म का ज़ाहिर तो करे लेकिन उसके दिल में आस्था वही हो जो पहले से स्थापित है। इस दिखावटी धर्म परिवर्तन का कोई मतलब नहीं क्योंकि धर्म ज़ाहिरदारी (दिखावे) से ज़्यादा बंदे और उसके परवरदिगार के बीच के संबंध का नाम है और एक व्यक्ति ऐसा कर के लोगों को तो धोका दे सकता है लेकिन अपने सर्वज्ञानी पालनहार को कभी धोका नहीं दे सकता ! उस से कोई भी चीज़ छुपी हुई नहीं है। 

यही कारण है कि इस्लाम धर्म में इस तरह की हरकत को बिल्कुल भी पसंद नहीं किया गया है। जो व्यक्ति लोगों को दिखाने के लिए या किसी सांसारिक लाभ के लिए इस्लाम में अपनी आस्था जताए और उसके दिल में ईश्वर-अल्लाह का इंकार हो या शिर्क (बहुदेववाद) हो, उसे क़ुरआन में "मुनाफिक़" (Hypocrite) कहा गया है जिसकी सज़ा आख़िरत (परलोक) में जहन्नम बताई गई है जबकि सच्चे ईमान और इस्लाम पर जन्नत की ज़मानत (गारंटी) दी गई है। तो ऐसे दिखावटी इस्लाम का क्या फ़ायदा जो इंसान को आख़िरत में कामयाबी नहीं दिला सके जो अस्ल में मक़्सूद (उद्दिष्ट) है। इसलिए अल्लाह कभी नहीं चाहेगा कि लोग ज़बरदस्ती इस्लाम क़ुबूल करने पर मजबूर किए जाएं और अन्ततः मुनाफिक़ बन जाएं, ही क़ुरआन में ऐसा कोई आदेश दिया गया है l

क़ुरआन में अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त का संदेश है: 

تِلۡکَ اٰیٰتُ  الۡکِتٰبِ  الۡمُبِیۡنِ ﴿۲﴾ لَعَلَّکَ بَاخِعٌ نَّفۡسَکَ اَلَّا یَکُوۡنُوۡا مُؤۡمِنِیۡنَ ﴿۳﴾ اِنۡ نَّشَاۡ نُنَزِّلۡ عَلَیۡہِمۡ مِّنَ السَّمَآءِ  اٰیَۃً فَظَلَّتۡ اَعۡنَاقُہُمۡ  لَہَا خٰضِعِیۡنَ ﴿۴﴾ وَ مَا یَاۡتِیۡہِمۡ مِّنۡ ذِکۡرٍ مِّنَ الرَّحۡمٰنِ مُحۡدَثٍ  اِلَّا  کَانُوۡا عَنۡہُ  مُعۡرِضِیۡنَ  ﴿۵﴾ 

"ये खुली किताब की आयतें हैं। ( नबी !) शायद आप इस ग़म में अपनी जान खोदेंगे कि ये लोग ईमान नहीं लाते। हम चाहें तो आसमान से ऐसी निशानी उतार सकते हैं कि इनकी गर्दनें उसके आगे झुक जाएँ। (लेकिन) इन लोगों के पास रहमान (मेहरबान ख़ुदा) की तरफ़ से जो भी नई नसीहत आती है ये उस से मुँह मोड़ लेते हैं।" [पवित्र क़ुरआन, सूरह शोअरा 26: 2-5]

पैग़म्बर मुहम्मद ... को इंसानियत से जो हमदर्दी और उनकी हिदायत (सत्य मार्ग की पहचान कराने) की जो फ़िक्र (चिंता) और दिली तड़प थी उसका इज़हार (बयान) अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त ने इन आयतों (Verses) में किया है और उन्हें एक तरह की तसल्ली दी है कि आप तो अपना काम बहुस्न ख़ूबी (अच्छी तरह) अंजाम दे ही रहे हैं, अब अगर वह लोग ईमान नहीं लाते तो इस के ग़म में और उनकी हिदायत की हद से ज़्यादा फ़िक्र में क्या आप अपनी जान को हलाकत में डाल देंगे? साथ ही अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त ने एक और बात कही जो बहुत ही अहम (महत्वपूर्ण) है, वह यह कि अगर हम चाहते तो आसमान से एक ऐसी निशानी उतार देते जिस के सामने गर्दनें झुकाने के अलावा उनके पास कोई चारा होता अर्थात वे ईमान लाने पर मजबूर हो जाते लेकिन इस तरह उसमें एक तरह से जब्र (ज़बरदस्ती मजबूरी या Compulsion) का पहलू शामिल हो जाता जबकि अल्लाह ने इंसान को इरादे और इख़्तियार की आज़ादी (Free Will) दी है ताकि उसकी आज़माइश की जाए, इसी लिए ऐसी निशानी भी नहीं उतारी जिस से उसका यह क़ानून प्रभावित हो और केवल अंबिया और रसूलों (Prophets) को भेजने और किताबें नाज़िल करने तक ही मामला सीमित रखा एवं मानने मानने की ज़िम्मेदारी लोगों पर छोड़ दी। 

इसी तरह की बात सूरह शूरा के आयत संख्या 8 में भी कही गई है: 

وَ لَوۡ شَآءَ  اللّٰہُ  لَجَعَلَہُمۡ  اُمَّۃً  وَّاحِدَۃً وَّ لٰکِنۡ  یُّدۡخِلُ مَنۡ یَّشَآءُ  فِیۡ  رَحۡمَتِہٖ ؕ وَ الظّٰلِمُوۡنَ مَا لَہُمۡ مِّنۡ وَّلِیٍّ وَّ لَا  نَصِیۡرٍ ﴿۸﴾

"और अगर अल्लाह चाहता तो उन सब को एक ही जमाअ़त (अर्थात मुसलमान) बना देता, लेकिन वह जिसको चाहता है अपनी रहमत में दाख़िल करता है, और जो ज़ालिम लोग हैं उनका कोई रखवाला है, कोई मददगार।" [पवित्र क़ुरआन, सूरह अल-शूरा 42: 8]

यहां यह बात कही गई है कि अगर अल्लाह चाहता तो सारे इंसानों को एक जमा'अत (गिरोह या समुदाय) अर्थात मुसलमान बना देता, क्योंकि यह उस की क़ुदरत से बाहर नहीं था लेकिन यह एक तरह की ज़बरदस्ती होती हालांकि इंसान को पैदा करने का उद्देश्य ही यह था कि लोग ज़बरदस्ती नहीं बल्कि ख़ुद अपने इख़्तियार से सोच समझ कर हक़ (सत्य) को क़ुबूल करें, इसी में उनका इम्तिहान (परीक्षा) है जिस पर आख़िरत (परलोक) में जज़ा (अच्छे काम का बदला या इन'आम) एवं सज़ा मिलने वाली है, इसी लिए अल्लाह ने किसी को ज़बरदस्ती मुसलमान बनाना नहीं चाहा।

इस से साबित हुआ कि अल्लाह को वह ईमान और इस्लाम पसंद है जो इंसान स्वेच्छा से अर्थात अपनी ख़ुशी से क़ुबूल करे, ज़बरदस्ती और मजबूरी वाला ईमान और इस्लाम अल्लाह को पसंद नहीं। अगर वह इसको पसंद करता तो ख़ुद ऐसी निशानी आसमान से उतार देता जिससे लोग ईमान लाने पर मजबूर हो जाते। जब उसने यह पसंद नहीं किया तो वह मुसलमानों से यह कैसे अपेक्षा रख सकता है या इसको पसंद कर सकता है कि वे दूसरों को ईमान लाने पर मजबूर करें? ऐसे में उनकी आज़माइश का क्या होगा जो अस्ल में मक़्सूद (अपेक्षित) है? 

इसी लिए दूसरी जगह क़ुरआन ने यह स्पष्ट संदेश दिया है: 

لَاۤ اِکۡرَاہَ فِی الدِّیۡنِ ۟ ۙ قَدۡ تَّبَیَّنَ الرُّشۡدُ مِنَ الۡغَیِّ ۚ فَمَنۡ یَّکۡفُرۡ بِالطَّاغُوۡتِ وَ یُؤۡمِنۡۢ بِاللّٰہِ فَقَدِ اسۡتَمۡسَکَ بِالۡعُرۡوَۃِ الۡوُثۡقٰی ٭ لَا انۡفِصَامَ  لَہَا ؕ وَ اللّٰہُ سَمِیۡعٌ عَلِیۡمٌ ﴿۲۵۶﴾

"दीन (धर्म) के मामले में कोई ज़बरदस्ती नहीं है। हिदायत का रास्ता गुमराही से मुमताज़ (अलग) होकर वाज़ेह (स्पष्ट) हो चुका। उसके बाद जो शख़्स ताग़ूत (शैतान) का इन्कार करके अल्लाह पर ईमान ले आयेगा, उसने एक मज़बूत कुन्डा थाम लिया, जिसके टूटने की कोई संभावना नहीं। और अल्लाह ख़ूब सुनने वाला, सब कुछ जानने वाला है।" [पवित्र क़ुरआन, सूरह अल-बक़रह: 256]

 इसी प्रकार का संदेश सूरह यूनुस में दिया गया है; 

وَ لَوۡ شَآءَ رَبُّکَ لَاٰمَنَ مَنۡ فِی الۡاَرۡضِ کُلُّہُمۡ جَمِیۡعًا ؕ اَفَاَنۡتَ تُکۡرِہُ النَّاسَ حَتّٰی یَکُوۡنُوۡا مُؤۡمِنِیۡنَ ﴿۹۹﴾

"और अगर अल्लाह चाहता तो रू--ज़मीन (धरती) पर बसने वाले सब के सब ईमान ले आते। तो क्या तुम लोगों पर ज़बरदस्ती करोगे ताकि वे सब मोमिन (ईमान वाला) बन जायें?" [पवित्र क़ुरआन, सूरह यूनुस 10: 99] 

इस लिए ज़बरदस्ती मुसलमान बनाने की theory जो फैलाई जाती रही है सरासर गलत और झूठ पर आधारित है। क़ुरआन में ऐसा कोई आदेश दिया गया है और ही पैग़म्बर मुहम्मद सल्लल्लाहु 'अलैहि वसल्लम या उनके साथियों ने ऐसा किया है। पैग़म्बर मुहम्मद .. . ने जो जंगे लड़ीं वह लोगों को इस्लाम धर्म ज़बरदस्ती क़ुबूल करवाने के लिए नहीं बल्कि उनकी दावत, उनके मिशन के रास्ते में लोग जो बाधाएं डाल रहे थे, उन्हें समाप्त करने के लिए लड़ी हैं, इसी लिए जहां भी उनकी या उनके ख़लीफ़ाओं की जीत हुई और इस्लामी हुकूमत स्थापित हुई वहाँ किसी को इस्लाम क़ुबूल करने पर मजबूर नहीं किया गया बल्कि जो अपने धर्म पर रहना चाहे उन्हें उन पर रहने दिया गया और उनकी सुरक्षा एवं मानवाधिकारों की रक्षा की ज़िम्मेदारी इस्लामी स्टेट पर रही। 

यहां यह भी स्पष्ट कर दूं कि सूरह अल-शूरा की आयत संख्या 8 में जो फ़रमाया गया है कि अल्लाह जिसको चाहता है अपनी रहमत में दाख़िल करता है, यहां रहमत से तात्पर्य हिदायत और इस्लाम है, और क़ुरआन की दूसरी आयतों में यह बताया गया है कि अल्लाह हिदायत (सत्य मार्ग की पहचान) उसी को देता है जिसको उसे प्राप्त करने की तड़प हो, जो लोग सत्य मार्ग को पहचानने के बावजूद उसकी मुख़ालिफ़त (विरोध) करते हैं अल्लाह उन्हें हिदायत कभी नहीं देता!

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