Saturday, 23 March 2024

रोज़ों से आख़िर क्या अपेक्षित है?

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✍️डॉ. मो. वासे ज़फ़र


जिस तरह अल्लाह-ईश्वर सर्वज्ञानी एवं सर्वशक्तिमान ने इस दुनिया में किसी ऐसी मख़्लूक़ (जीव) को पैदा नहीं किया जो बे-फ़ायदा (व्यर्थ) या बे-मक़्सद (उद्देश्यहीन) हो, उसी तरह उसने जिन्नों1 (Jinns) और इंसानों पर कोई ऐसा आदेश भी जारी नहीं किया जो बे-फ़ायदा या बे-मक़्सद हो, या फिर उनके सामर्थ्य (capacity) से बाहर हो। वास्तव में, पूरी की पूरी इस्लामी शरीअत (ईश्वरीय क़ानून) जिन्नों और इंसानों के दुनयवी (सांसारिक) या उख़रवी (पारलौकिक) फ़ायदों पर ही आधारित है, जिसे थोड़ा ग़ौर--फ़िक्र (चिंतन एवं मनन) से आसानी से समझा जा सकता है, लेकिनआम तौर पर लोग चूंकि तशरी अहकाम (ईश्वरीय आदेशों) की हिकमतों (अंतर्निहित कारणों) पर ग़ौर नहीं करते हैं, इस लिए वहाँ तक उनकी पहुंच नहीं होती और वे शरीअत के आदेशों को अपने लिए बोझ समझते हैं और कुछ तो उनकी मुख़ालिफ़त (विरोध) पर भी उतर आते हैं। फिर जो चिंतनशील (ग़ौर--फ़िक्र करने वाले) होते हैं उनके चिंतन के भी विभिन्न आयाम एवं दृष्टिकोण होते हैं; एक व्यक्ति ईश्वरीय आदेशों को केवल दुनयवी (सांसारिक) लाभों के नुक़्ता--नज़र (दृष्टिकोण) से देखता है, जबकि दूसरा उन्हें केवल उख़रवी (पारलौकिक) लाभों के दृष्टिकोण से देखता है, जो निश्चित रूप से सांसारिक लाभों की तुलना में श्रेष्ठ, स्थायी और परम प्रकृति (Ultimate Nature) के होते हैं।

यही मामला रोज़े (उपवास या व्रत) के साथ है कि चिकित्सा विज्ञान (Medical Sciences) और औषधि विज्ञान (Science of Medicine) से जुड़े लोगों ने अपनी-अपनी समझ के हिसाब से इसके लाभ और मानव स्वास्थ्य पर पड़ने वाले इसके सुप्रभावों को चिन्हांकित किया है जिसका सिलसिला आज भी जारी है। लेकिन वे सभी इसके अतिरिक्त (Additional) फ़ायदे हैं, वास्तविक उद्देश्य जो इन सभी से कहीं उत्तम एवं श्रेष्ठ है, उसका उल्लेख सर्वशक्तिमान अल्लाह ने स्वयं अपनी पुस्तक (पवित्र क़ुरआन) में किया है। ईश्वरीय संदेश है:

یٰۤاَیُّہَا الَّذِیۡنَ اٰمَنُوۡا کُتِبَ عَلَیۡکُمُ الصِّیَامُ کَمَا کُتِبَ عَلَی الَّذِیۡنَ مِنۡ قَبۡلِکُمۡ لَعَلَّکُمۡ تَتَّقُوۡنَ (البقرة: ١٨٣)

(अर्थ): “ ईमान वालो! तुम पर रोज़े फ़र्ज़ (अनिवार्य) कर दिये गये हैं, जिस तरह तुम से पहले लोगों पर फ़र्ज़ किये गये थे, इस अपेक्षा पर कि तुम मुत्तक़ी (परहेज़गार) हो जाओ।” [पवित्र क़ुरआन, सूरः अल-बक़रह 02: 183]

इस आयत पर ग़ौर करने से पता चलता है कि रोज़े (Fastings) से यह अपेक्षित है कि इंसान के अंदर तक़्वा (धर्मपरायणता) का गुण विकसित हो क्योंकि शब्द لَعلَّكُمْ (अल्लकुम) में لَعَلَّ (अल्ल) अक्षर एक क्रिया के समान है औरअरबी में इसका उपयोग संदेह, संशय, आशा, उम्मीद, अपेक्षा, एवं प्रबल संभावना के अर्थों में होता है। तक़्वा (Piety) का यह गुण क्या है, इसे इस रिवायत (Report) के आलोक में बेहतर ढंग से समझा जा सकता है:

"قال رجل لأبي ه‍ريرةؓ ما التقوى؟ قال: أخذت طريقاً ذا شوك؟ قال: نعم، قال: فكيف صنعت ؟ قال: إذا رأيت الشوك عدلت عنه أو جاوزته أو قصرت عنه، قال: ذاك التقوى" (كتاب الزهد الكبير للبيهقيؒ، دار الجنان ومؤسسة الكتب الثقافية، بيروت، لبنان، الطبعة الأولىٰ ١٩٨٧م، رقم الحديث ٩٦٣)

(अर्थ): एक व्यक्ति ने हज़रत अबू हुरैरह (.) से पूछा: तक़्वा क्या है? उन्होंने फ़रमाया: क्या तुमने (सफ़र में) कभी कांटेदार रास्ता अपनाया है? उसने कहा: हाँ! उन्होंने पूछा: फिर तुमने उस से गुज़रते समय क्या किया था?" उसने कहा: जब मैं काँटा देखता तो उससे हट जाता या उससे बच कर निकल जाता या उस से नहीं गुज़रता। अबू हुरैरह (.) ने फ़रमाया: यही तक़्वा है।” [किताब अल-ज़ुह्द अल-कबीर लिल-बैहक़ी, दार अल-जिनान मुअस्सतुल कुतुब अल-सक़ाफ़ियह, बेरूत, लेबनान, प्रथम संस्करण 1987 ., हदीस संख्या 963]

उपरोक्त संवाद में तक़्वा की सर्वोत्तम व्याख्या मौजूद है कि जिस प्रकार झाड़ीयुक्त एवं काँटेदार रास्ते पर चलते समय इंसान अपने कपड़ों को समेट कर बचता बचाता गुज़रता है, ठीक उसी प्रकार जीवन के सफ़र में गुनाहों, पापों, गंदगियों, नफ़्स की व्यर्थ की इच्छाओं, शैतानी वसवसों (बुरे ख़्यालों) और अल्लाह को नाराज़ (अप्रसन्न) करने वाली चिज़ों से बचते बचाते गुज़र जाने का नाम तक़्वा है। मानो तक़्वा ज़ब्त--नफ़्स (आत्मसंयम/Self-control) या बुराईयों से बचने की इस्तेदाद (क्षमता) का नाम है। यह विशेषता चूँकि रोज़े से बेहतर तरीक़े से हासिल (ग्रहण) की जा सकती है, इसलिए अल्लाह आला (सर्वश्रेष्ठ) ने इसे केवल हम पर बल्कि पिछली क़ौमों एवं धर्म-समुदायों पर भी फ़र्ज़ किया था।

दरअस्ल (वस्तुतः) “الصَّومُ” ("अल-सौम") का मूल अर्थ ही किसी काम से रुक जाने, बचने, संयम रखने या परहेज़ करने के हैं। इस्लामी शरीअत की इस्तिलाह (शब्दावली) में किसी भी मुकल्लफ़2 शख़्स का रोज़ा रखने की नीयत (intention) से सुब्ह--सादिक़ (भोर या उषाकाल) से ग़ुरूब--आफ़ताब (सूर्यास्त) तक खाने, पीने, जान बूझ कर उल्टी करने, एवं संभोग करने (sexual intercourse) से रुके रहने कोसियामकहते हैं और यहांसियामका मतलब रमज़ान के रोज़े हैं। [अली मुहम्मद द्वारा लिखितअनवारुल-बयान फ़ी हल्लि लुग़ातुल क़ुरआन”, मक्तबा सय्यद अहमद शहीद, लाहौर, 2005 ., खंड 01, पृष्ठ 142]

जो लोग अल्लाह आला को अपना रब (पालनहार) मानते हैं, वे उसके आदेश के मद्देनज़र एक निश्चित अवधि के लिए उपरोक्त बातों से रुक जाते हैं। हलाल और बेहतरीन ग़िज़ाएँ (भोजन-सामग्री) उनके सामने होती हैं और ख़ूबसूरत शरीक--हयात (जीवनसंगिनी) भी उनके क़रीब होती हैं, लेकिन वे अपने आप पर नियंत्रण रखते हैं जब तक कि अल्लाह की अनुमति का नियत समय नहीं जाता। वे वुज़ू करते समय मुँह में पानी भी लेते हैं,  कुल्ली (ग़रारा) करते हैं परन्तु पानी का एक घूंट भी हलक़ (गले) में नहीं जाने देते जबकि अगर वह ऐसा कर लें तो कोई दूसरा आदमी उसे देख या समझ भी नहीं सकता। आख़िर ऐसा करना क्यों कर मुम्किन (संभव) हो पाता है? क्योंकि उन्हें इस बात का इस्तिहज़ार (ध्यान) रहता है कि कोई देखे या देखे, उनका रब उन्हें देख रहा है।

अब आप ग़ौर कीजिये कि जो व्यक्ति अल्लाह आला की रज़ा (प्रसन्नता) के लिए उसकी हलाल (वैध) ठहराई हुई चीज़ों से भी एक निश्चित अवधि तक के लिए रुक जाता हो, क्या वह पसंद करेगा कि उसी अवधि में उसके द्वारा हराम ठहराई हुई (वर्जित) चीज़ों की ओर अपना क़दम बढ़ाए। यदि वह वर्जित चीज़ों की ओर अपना कदम बढ़ाता है तो यही कहा जाएगा कि उसने रोज़ा रस्मन (रिवाज की मुताबिक़) रखा हुआ है, उसे रोज़े की कोई समझ है और ही अल्लाह आला का इस्तिहज़ार (ध्यान) इसी लिए अल्लाह के रसूल (दूत) हज़रत मुहम्मद () ने फ़रमाया:

«مَنْ لَمْ يَدَعْ قَوْلَ الزُّورِ وَالعَمَلَ بِهِ وَالجَهْلَ، فَلَيْسَ للهِ حَاجَةٌ أَنْ يَدَعَ طَعَامَهُ وَشَرَابَهُ» (صحیح البخاریؒ، مكتبة الرشد، الرياض، الطبعة الثانية ٢٠٠٦م، رقم الحدیث ٦٠٥٧ بروایت ابوہریرہؓ)

(अर्थ): "जो व्यक्ति (रोज़े की हालत में) झूठ बोलना, उस परअमल (कार्यवाही) करना और जहालत (अशिष्टता) की बातों को छोड़े तो अल्लाह को इसकी कोई ज़रूरत नहीं कि वह अपना खाना-पीना छोड़ दे।" [सही बुख़ारी, मक्तबा अल-रुश्द, अल-रियाद, द्वितीय संस्करण 2006 ., हदीस सं. 6057, अबू-हुरैरह द्वारा प्रतिवेदित]

यह स्पष्ट है कि अल्लाह आला ने उस पर रोज़े केवल इसी लिए फ़र्ज़ किये थे ताकि उसके अंदर गुनाहों (पापों) से बचने की क्षमता विकसित हो, लेकिन जब वह रोज़ा रखते हुए भी अल्लाह की नाफ़रमानियाँ (अवज्ञा) करता रहा, तो मानो उसने तक़्वा (धर्मपरायणता) के हुसूल (अभिग्रहण) का इरादा ही नहीं किया तो अल्लाह को उसे भूखा-प्यासा रखने से क्या मतलब है? नतीजे (परिणाम) के तिबार (दृष्टिकोण) से उसका रोज़ा ऐसा ही है जैसा भूखा-प्यासा रहना।

 इसी बात को पैग़म्बर साहब ने इस प्रकार वर्णित किया है:

"كَمْ مِنْ صَائِمٍ لَيْسَ لَهُ مِنْ صِيَامِهِ إِلَّا الظَّمَأُ وَكَمْ مِنْ قَائِمٍ لَيْسَ لَهُ مِنْ قِيَامِهِ إِلَّا السَّهَرُ" (مسند الدارمیؒ، دار ابن حزم، بيروت، الطبعة الأولىٰ ٢٠٠٢م، رقم الحديث ٢٧٥٤، بروایت ابوہریرہؓ)۔

(अर्थ): "कितने ही रोज़े-दार (व्रत रखने वाले) ऐसे हैं जिन्हें अपने रोज़े से प्यास के सिवा कुछ हासिल (प्राप्त) नहीं होता और कितने ही क़ियाम-उल-लैल (रात में खड़े होकर अल्लाह कीइबादत) करने वाले ऐसे हैं जिन्हें अपने क़ियाम से जागने के सिवा कुछ हासिल नहीं होता।" [मुसनद अल-दारमी, दार इब्ने हज़म, बेरूत, प्रथम संस्करण 2002 ., हदीस सं. 2754, अबू-हुरैरह . द्वारा प्रतिवेदित]

ज़ाहिर है कि ये वही लोग हैं जो रोज़े के दौरान झूठ, ग़ीबत (पीठ पीछे किसी की बुराई करना) और फ़ुहश-गोई (अश्लील भाषा के प्रयोग) से परहेज़ करते हैं, और ही धोखाधड़ी और हराम-ख़ोरी से, अपनी नमाज़ों की हिफ़ाज़त करते हैं और ही अल्लाह आला के दूसरे अहकाम (आदेशों) की। हालाँकि, तक़्वे का तक़ाज़ा (demand) यह था कि वह मन्हिय्यात (धर्म में वर्जित चीज़ों) और मुहर्रमात (हराम चीज़ों, वर्जनाओं) से तो क्या मुश्तबिहात (संदेहपूर्ण चीज़ों) से भी परहेज़ करते और अल्लाह के आदेशों का लिहाज़ (ध्यान) रखते हुए अपनी ज़िंदगी गुज़ारते जैसा कि प्यारे नबी (पैग़म्बर) ने फ़रमाया है। आपका कथन है:

«إِنَّ الْحَلَالَ بَيِّنٌ، وَإِنَّ الْحَرَامَ بَيِّنٌ، وَبَيْنَهُمَا مُشْتَبِهَاتٌ لَا يَعْلَمُهُنَّ كَثِيرٌ مِنَ النَّاسِ، فَمَنِ اتَّقَى الشُّبُهَاتِ اسْتَبْرَأَ لِدِينِهِ، وَعِرْضِهِ، وَمَنْ وَقَعَ فِي الشُّبُهَاتِ وَقَعَ فِي الْحَرَامِ، كَالرَّاعِي يَرْعَى حَوْلَ الْحِمَى، يُوشِكُ أَنْ يَرْتَعَ فِيهِ، أَلَا وَإِنَّ لِكُلِّ مَلِكٍ حِمًى، أَلَا وَإِنَّ حِمَى اللهِ مَحَارِمُهُ" (صحيح مسلم، دار السلام، الرياض، الطبعة الثانية ٢٠٠٠م، جزء من رقم الحديث ٤٠٩٤)، بروایت  نعمان بن بشیرؓ)

(अर्थ): "निस्संदेह, हलाल स्पष्ट है और हराम स्पष्ट है, और उन दोनों के बीच संदेहात्मक चीज़ें (मुश्तबिहात) हैं जिनके बारे में अधिकांश लोग नहीं जानते, इसलिए जो कोई संदेहात्मक चीज़ों से बच गया उसने अपना दीन (धर्म) और प्रतिष्ठा बचा ली, और जो संदेहपूर्ण चिज़ों में पड़ गया वह अंततः हराम में भी पड़ गया, जैसे एक चरवाहा जो (शाही संरक्षित) चरागाह के आसपास (बकरियां) चराता है, क़रीब है कि वह उस (चरागाह) में प्रवेश होकर चरने लगें (और वह शाही अपराधी घोषित किया जाए), देखो! प्रत्येक राजा की एक चारागाह होती है, ख़बरदार रहो! अल्लाह की चरागाह उसकी निषिद्ध चीज़ें (हुदूदुल्लाह या अल्लाह की ओर से निर्धारित सीमाएँ) हैं।” [सही मुस्लिम, दारुस्सलाम, अल-रियाद, द्वितीय संस्करण 2000 ., हदीस सं. 4094, नोमान इब्ने बशीर . द्वारा प्रतिवेदित]

इसलिए तक़्वा (Piety) के हुसूल (अभिग्रहण) के लिए यह आवश्यक है कि व्यक्ति संदेहात्मक एवं संदिग्ध चिज़ों से भी परहेज़ करे और उन चिज़ों से भी जो कराहत (ना-पसंदीदगी या घृणा) के साथ जाइज़ (वैध या अनुज्ञेय) हैं, क्योंकि यह अल्लाह आला द्वारा निर्धारित सीमाओं के करीब जाने के समान है। इस बात को पैग़म्बर साहब (सल्लल्लाहु अलैहि सल्लम) ने इस प्रकार व्यक्त किया है:

"لَا يَبْلُغُ الْعَبْدُ أَنْ يَكُونَ مِنَ الْمُتَّقِينَ حَتَّى يَدَعَ مَا لَا بَأْسَ بِهِ حَذَرًا لِمَا بِهِ الْبَأْسُ" (سنن الترمذيؒ، دار الحضارة للنشر والتوزيع، الرياض، الطبعة الثانية ٢٠١٥م، رقم الحديث ٢٤٥١، بروایت عطیه سعدیؓ)

(अर्थ): "कोई बंदा मुत्तक़ियों (परहेज़गारों) के मुक़ाम को नहीं पहुँच सकता जब तक कि वह उस चीज़ को जिस में कोई हरज (बुराई, हानि) नहीं, उस चीज़ से बचने के लिए छोड़ दे जिस में हरज है।" [सुनन तिर्मिज़ी, दारुल हिज़ारह लिल-नश्र वल-तौज़ी, अल-रियाद, द्वितीय संस्करण 2015, हदीस सं. 2451, ‘अतिया सादी . द्वारा प्रतिवेदित]

इस प्रकार जो व्यक्ति पूरे एक महीने अल्लाह आला के इस्तिहज़ार (ध्यान) और उसके फ़रामीन (आदेशों) का लिहाज़ रखते हुए रोज़े का एहतिमाम (आयोजन) करेगा, तो उस से आशा की जाती है कि वह शेष ग्यारह महीनों में भी अल्लाह आला के अहकाम (Commandments) का लिहाज़ रखेगा। अगर यह कैफ़ियत पैदा हो गई तो समझें कि रमज़ान का महीना सफलतापूर्वक बीता और रोज़े अपने उद्देश्य को पहुंचे। और अगर मामला इसके विपरीत है तो समझ लें कि रोज़े से भूख एवं प्यास के सिवा कुछ हाथ नहीं आया।

यह याद रहे कि अल्लाह आला आप के मुरझाए हुए चेहरे और सूखे हुए शरीर को नहीं देखता, वह तो आपके दिल की कैफ़ियत (हालत) देखता है कि वह किस हद तक मुती (आज्ञाकारी) है और सिद्क़ (सच्चाई) एवं इख़्लास (निष्ठा) से किस हद तक मामूर (भरा हुआ) है? रोज़े से आप ने तक़्वा के हुसूल की नीयत की है या कुछ और, वह यह भी जानता है। वह यह भी जानता है कि रमज़ान के बाद आप के इरादे तक़्वा (परहेज़गारी) के साथ ज़िंदगी गुज़ारने के हैं या शरीअत की पाबंदियों से पूरी तरह आज़ाद रह कर। इसी लिए अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि सल्लम) ने अपने सीने की ओर इशारा करके फ़रमाया था कि तक़्वा यहाँ है, अर्थात दिल में है। [देखें सही मुस्लिम, हदीस संख्या 6541 एवं 6542]

अब आप यह सोच सकते हैं कि आख़िर तक़्वा पर इतना ज़ोर (बल) क्यों दिया जा रहा है और इसके समरात (प्रतिफल) क्या है? तो जान लीजिये कि तक़्वा ही वह गुण है जो ईमान के बाद सर्वशक्तिमान अल्लाह को सबसे अधिक महबूब (प्रिय) है। अल्लाह का फ़रमान है:

"اِنَّ  اَکۡرَمَکُمۡ  عِنۡدَ الله  اَتۡقٰکُمۡ " (الحجرات: ١٣)

"निस्संदेह, अल्लाह की दृष्टि में, तुम में सबसे अधिक सम्माननीय (इज़्ज़त वाला) वह है जो तुम में सबसे अधिक तक़्वा वाला (धर्मनिष्ठ) है।" [पवित्र क़ुरआन, सूरः अल-हुजुरात 49: 13]

यही तक़्वा सारीइबादतों का मक़्सूद (अभिप्रेत) है और यही एक मुसलमान के व्यावहारिक जीवन का नस्बुल-‘ऐन (वास्तविक लक्ष्य) भी है। इसे क़ुरआन की इस आयत की रौशनी में समझा जा सकता है:

"یٰۤاَیُّہَا النَّاسُ اعۡبُدُوۡا رَبَّکُمُ الَّذِیۡ خَلَقَکُمۡ وَ الَّذِیۡنَ مِنۡ قَبۡلِکُمۡ لَعَلَّکُمۡ تَتَّقُوۡنَ◌" ﴿سورة البقرۃ:٢١﴾

अर्थ): " लोगो! अपने उस परवर्दिगार कीइबादत करो जिसने तुम्हें और उन लोगों को पैदा किया जो तुम से पहले गुज़रे हैं, ताकि तुम मुत्तक़ी (परहेज़गार) बन जाओ।" [पवित्र क़ुरआन, सूरः अल-बक़रह 02: 21]

इसी तक़्वा पर दुनिया में मोमिनों (ईमान वालों) के साथ मदद, रहमत (ईश्वरीय कृपा) और बरकत (ईश्वरानुग्रह) के वादे हैं। उदाहरण के लिए पवित्र क़ुरआन की इस आयत को देखें:

"وَ لَوۡ اَنَّ اَہۡلَ الۡقُرٰۤی اٰمَنُوۡا وَ اتَّقَوۡا لَفَتَحۡنَا عَلَیۡہِمۡ بَرَکٰتٍ مِّنَ السَّمَآءِ وَ الۡاَرۡضِ وَ لٰکِنۡ کَذَّبُوۡا فَاَخَذۡنٰہُمۡ بِمَا  کَانُوۡا یَکۡسِبُوۡنَ◌" (سورة الأعراف: ٩٦)

(अर्थ): "और अगर इन बस्तियों के निवासी ईमान ले आते और तक़्वा (नेकी और परहेज़गारी का रास्ता) इख़्तियार कर लेते तो हम उन पर आसमान और ज़मीन दोनों तरफ़ से बरकतों के दरवाज़े खोल देते। लेकिन उन्होंने (हक़ को) झुठलाया, इसलिये उनकी लगातार बद-अ़मली (बुरे कर्मों) की सज़ा में हमने उनको अपनी पकड़ (गिरिफ़्त) में ले लिया।” [पवित्र क़ुरआन, सूरः अल-’आराफ़ 07: 96]

इसी तक़्वा पर, सर्वशक्तिमान अल्लाह ने गुनाहों की मुआफ़ी और एक विशेष प्रकार की ईमानी बसीरत (अंतर्दृष्टि) देने का वादा किया है जिससे हक़ (सत्य) और बातिल (असत्य) के बीच भेद करने की क्षमता पैदा होती है।

"یٰۤاَیُّہَا الَّذِیۡنَ اٰمَنُوۡۤا اِنۡ تَتَّقُوا اللّٰہَ یَجۡعَلۡ لَّکُمۡ فُرۡقَانًا وَّ یُکَفِّرۡ عَنۡکُمۡ سَیِّاٰتِکُمۡ وَ یَغۡفِرۡ  لَکُمۡ ؕ وَ اللّٰہُ  ذُو الۡفَضۡلِ  الۡعَظِیۡمِ◌" ﴿سورة الأنفال: ٢٩﴾

(अर्थ): " ईमान वालो! अगर तुम अल्लाह के साथ तक़्वा की रविश (चलन) इख़्तियार करोगे (अपनाओगे) तो वह तुम्हें फ़ुरक़ान (हक़ बातिल की तमीज़ की क्षमता) ‘अ़ता कर देगा, और तुम से तुम्हारी बुराइयाँ दूर कर देगा, और तुम्हें बख़्श देगा और अल्लाह बड़े फ़ज़्ल का मालिक (कृपावान) है।  [पवित्र क़ुरआन, सूरः अन्फ़ाल 08: 29]

इसी तक़्वा पर आख़िरत (परलोक) में निजात (मुक्ति) निर्भर है।

"وَ یُنَجِّی اللهُ الَّذِیۡنَ اتَّقَوۡا بِمَفَازَتِہِمۡ ۫ لَا یَمَسُّہُمُ السُّوۡٓءُ وَ لَا ه‍ُمۡ  یَحۡزَنُوۡنَ◌" ﴿سورة الزمر: ٦١﴾

(अर्थ): “और जिन लोगों ने तक़्वा इख़्तियार किया है, अल्लाह उनको निजात देकर उनकी मुराद को पहुँचा देगा, उन्हें कोई तकलीफ़ (पीड़ा) छुएगी भी नहीं, और उन्हें किसी बात का ग़म होगा।” [पवित्र क़ुरआन, सूरः अल-ज़ुमुर 39: 61]

और इसी तक़्वा पर आख़िरत में बेहतरीन अज्र (सर्वोत्तम प्रतिफल) और जन्नत (स्वर्ग) का वादा है।

"وَ لَاَجۡرُ الۡاٰخِرَۃِ خَیۡرٌ لِّلَّذِیۡنَ اٰمَنُوۡا وَ کَانُوۡا  یَتَّقُوۡنَ◌" ﴿سورة يوسف: ٥٧﴾

(अर्थ): “और आख़िरत का जो अज्र है वह उन लोगों के लिये कहीं ज़्यादा बेहतर है जो ईमान लाते और तक़्वा पर कारबन्द रहते हैं।” [पवित्र क़ुरआन, सूरः यूसुफ़ 12: 57]

और फ़रमाया:

"اِنَّ الۡمُتَّقِیۡنَ فِیۡ جَنّٰتٍ وَّ نَہَرٍ◌" (سورة القمر: ٥٤)

(अर्थ): "निश्चय ही जिन लोगों ने तक़्वा (नेकी और परहेज़गारी) की रविश (चाल) अपना रखी है, वे बाग़ों और नहरों में होंगे।” [पवित्र क़ुरआन, सूरः अल-क़मर 54: 54]

और यह भी संदेश है:

"مَثَلُ الۡجَنَّۃِ الَّتِیۡ وُعِدَ الۡمُتَّقُوۡنَ ؕ تَجۡرِیۡ مِنۡ  تَحۡتِہَا الۡاَنۡہٰرُ ؕ اُکُلُہَا دَآئِمٌ وَّ ظِلُّہَا ؕ تِلۡکَ عُقۡبَی الَّذِیۡنَ اتَّقَوۡا ٭ۖ وَّ عُقۡبَی الۡکٰفِرِیۡنَ النَّارُ◌" ﴿الرعد: ۳۵﴾

(अर्थ): "वह जन्नत जिसका मुत्तक़ी (नेक और परहेज़गार) लोगों से वादा किया गया है, उसका हाल यह है कि उसके नीचे नहरें बहती हैं, उसके फल भी सदाबहार हैं और उसकी छाँव भी। यह अन्जाम है उन लोगों का जिन्होंने तक़्वा इख़्तियार किया, जबकि क़ाफ़िरों (नास्तिकों एवं अविश्वासियों) का अन्जाम दोज़ख़ (नरक) की आग है।" [पवित्र क़ुरआन, सूरः अल-रा 13:35]

यह है उस तक़्वा की अहमियत (महत्व) जिसके हुसूल (प्राप्ति या अभिग्रहण) में सहायता के उद्देश्य से हमारे ऊपर रोज़े फ़र्ज़ (अनिवार्य) किये गए हैं। हक़ीक़त यह है कि दुनिया और आख़िरत में अल्लाह के इनआमात (पुरस्कारों) के सभी वादे ईमान और तक़्वा के साथ मशरूत (प्रतिबंधि) हैं। लेकिन अल्मिया (त्रासदी) यह है कि आज जो लोग ईमान वाले होने एवं अल्लाह और उसके रसूल (सल्ल.) से मुहब्बत रखने का दावा रखते हैं, उनमें से ज़्यादातर का तक़्वा (परहेज़गारी) से दूर-दूर तक का कोई अल्लुक़ (संबंध) नहीं। यही कारण है कि अल्लाह आला के वह वादे हमारे साथ इस सांसारिक जीवन में पूरे नहीं हो रहे जो उसने ईमान वालों से किए हुए हैं और आख़िरत की कामयाबी (सफलता) भी दाव पर लगी हुई है लेकिन हमें इसका एहसास भी नहीं है।

इसलिए हमें चाहिए कि तक़्वा की रविश इख़्तियार करने को ही हम अपनी ज़िंदगी का नस्बुल-’ऐन (वास्तविक लक्ष्य) बनाएँ चाहे इस राह (मार्ग) में हमें कितने ही मुजाहदे (संघर्ष) क्यों बर्दाश्त (सहन) करने पड़ें, और रोज़ों से भी इसके हुसूल (Attainment) की नीयत रखें तथा सारे आदाब (शिष्टाचारों) की रिआयत (पालन) करते हुए उनका एहतिमाम (आयोजन) करें तभी उनके समरात (प्रतिफल) मुरत्तब (संपादित) हो सकते हैं। अल्लाह पाक इस हक़ीर (तुच्छ) को भीअमल की तौफ़ीक़अता करे और तक़्वा की दौलत से मालामाल कर दे। आमीन!

पाद टिप्पणियाँ (Footnotes):

1.    जिन्न मनुष्य से भिन्न एक प्रजाति है जिसकी उत्पत्ति पवित्र क़ुरआन के अनुसार अग्नि से हुई है। ईश्वरीय क़ानून मनुष्य एवं जिन्न दोनों पर लागू होते हैं।

2.    मुकल्लफ़ शख़्स से तातपर्य वह वयस्क एवं सारीरिक तथा मानसिक रूप से स्वस्थ व्यक्ति है जिस पर शरीअत के आदेशों का पालन अनिवार्य हो।

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