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✍️डॉ. मो. वासे ज़फ़र
इस्लाम के बारे में एक संगीन (गंभीर) ग़लतफ़हमी यह है कि इसकी शुरुआत हज़रत मुहम्मद (ﷺ) बिन अब्दुल्लाह बिन अब्दुल मुत्तलिब से हुई। इसलिए, आम तौर पर लोग पैग़म्बर मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम (स.अ.व.) को इस्लाम के प्रवर्तक या संस्थापक के रूप में व्यक्त करते हैं। परन्तु प्रश्न यह उठता है कि क्या यह अवधारणा इस्लाम के प्राथमिक स्रोत पवित्र क़ुरआन की शिक्षाओं और संदेशों के अनुरूप है। इसका उत्तर बिल्कुल नकारात्मक है। जब कोई व्यक्ति पवित्र क़ुरआन का गहराई से अध्ययन करता है, तो वह एक बिल्कुल ही अलग निष्कर्ष पर पहुंचता है। पवित्र क़ुरआन के अनुसार, पैग़म्बर मुहम्मद (स.अ.व.) किसी नए धर्म के साथ नहीं आए थे, उन्होंने उसी धर्म का प्रचार प्रसार किया था जिसे उनके पूर्ववर्ती पैग़म्बरों; हज़रत नूह (अ.), हज़रत इब्राहीम (अ.), हज़रत मूसा (अ.) और हज़रत ईसा (अ.) आदि ने प्रचारित किया था।
देखिए क़ुरआन इस संबंध में क्या कहता है?
شَرَعَ
لَکُمۡ مِّنَ الدِّیۡنِ مَا وَصّٰی بِهِ نُوۡحًا وَّ الَّذِیۡۤ اَوۡحَیۡنَاۤ
اِلَیۡکَ وَ مَا وَصَّیۡنَا بِهِ
اِبۡرٰہِیۡمَ وَ مُوۡسٰی وَ
عِیۡسٰۤی اَنۡ اَقِیۡمُوا الدِّیۡنَ وَ
لَا تَتَفَرَّقُوۡا فِیۡهِ ﴿الشورى: ١٣﴾
(अर्थ): “उसने तुम्हारे लिये दीन (धर्म) का वही तरीक़ा निर्धारित किया है जिसका हुक्म उसने (हज़रत) नूह को दिया था, और जिसे (ऐ पैग़म्बर!) हमने तुम्हारे पास वही (ईश्वरीय संदेश) के ज़रिये भेजा है और जिसका हुक्म हमने (हज़रत) इब्राहीम, (हज़रत) मूसा और (हज़रत) ईसा को दिया था कि तुम दीन (धर्म) को क़ायम (स्थापित) करो और उसमें तफ़र्क़ा (फूट) न डालना।" [पवित्र क़ुरआन, सूरह अश-शूरा 42:13]
तो पवित्र क़ुरआन के अनुसार, पैग़म्बर मुहम्मद (स.अ.व.) और अल्लाह-ईश्वर के अन्य पैग़म्बरों (ईशदूतों) का धर्म (दीन) एक ही था। एक अन्य स्थान पर पवित्र क़ुरआन स्पष्ट रूप से उल्लेख करता है कि यह धर्म इस्लाम था। क़ुरआन के अलफ़ाज़ (शब्द) हैं:
اِنَّ
الدِّیۡنَ عِنۡدَ اللهِ الۡاِسۡلَامُ ۟ وَ مَا اخۡتَلَفَ الَّذِیۡنَ اُوۡتُوا
الۡکِتٰبَ اِلَّا مِنۡۢ بَعۡدِ مَا جَآءَهُمُ الۡعِلۡمُ بَغۡیًۢا بَیۡنَہُمۡ ؕ وَ
مَنۡ یَّکۡفُرۡ بِاٰیٰتِ اللهِ فَاِنَّ اللهَ سَرِیۡعُ الۡحِسَابِ ﴿آل عمران: ١٩﴾
“बेशक दीन (धर्म) तो अल्लाह के नज़दीक इस्लाम ही है। और जिन लोगों को किताब दी गई थी उन्होंने अलग रास्ते अज्ञानता (जानकारी के अभाव) में नहीं बल्कि इल्म आ जाने के बाद सिर्फ़ आपस की ज़िद (वैमनस्य) की वजह से इख़्तियार किया, और जो शख़्स (व्यक्ति) भी अल्लाह की आयतों को झुठलाये तो (उसे याद रखना चाहिए कि) अल्लाह बहुत जल्द हिसाब लेने वाला है।" [पवित्र क़ुरआन, सूरह आल-ए-‘इमरान 03:19]
इसलिए उपरोक्त आयतों के प्रकाश में देखें तो यह बिल्कुल स्पष्ट है कि इस्लाम मुहम्मद (स.अ.व.) से पहले के सभी पैग़म्बरों का दीन (धर्म) रहा है। तो उन्हें इस्लाम का प्रवर्तक या संस्थापक कैसे कहा जा सकता है? वास्तव में वह इस्लाम के अंतिम पैग़म्बर हैं अर्थात इस्लाम जो विभिन्न पैग़म्बरों के काल में पहले से प्रचलन में था, अपने अंतिम पैग़म्बर मुहम्मद (स.अ.व.) के हाथों सबसे उत्तम रूप में परिणित हुआ। पवित्र क़ुरआन में एक अन्य स्थान पर इस बात को स्पष्ट भी किया गया है। क़ुरआन कहता है:
اَلۡیَوۡمَ
اَکۡمَلۡتُ لَکُمۡ دِیۡنَکُمۡ وَ اَتۡمَمۡتُ عَلَیۡکُمۡ نِعۡمَتِیۡ وَ رَضِیۡتُ
لَکُمُ الۡاِسۡلَامَ دِیۡنًا ﴿المأئدة : ٣﴾
“आज मैं ने तुम्हारे लिये तुम्हारा दीन मुकम्मल कर दिया, तुम पर अपनी नेमत पूरी कर दी और तुम्हारे लिये इस्लाम को दीन के तौर पर (हमेशा के लिये) पसन्द कर लिया।" [पवित्र क़ुरआन, सूरह अल-माइदा 05:03]
यह मान्यता या विचार कि 'इस्लाम' ही सभी पैग़म्बरों का धर्म रहा है, इसके अर्थ को समझकर प्रमाणित एवं स्वीकार किया जा सकता है। अरबी भाषा के सबसे प्रामाणिक तथा विश्वसनीय शब्दकोषों में से एक, लिसान अल-अरब (لسان العرب) का उल्लेख है कि ‘इस्लाम' शब्द मूल क्रिया 'इस्तस्लामा' (استسلاما) से लिया गया है जिसका अर्थ है ‘समर्पित करना' या ‘समर्पण करना'। इस शब्दकोष के अनुसार धार्मिक परिप्रेक्ष्य में, इस्लाम का अर्थ है ईश्वर की इच्छा के प्रति स्वैच्छिक समर्पण और उसके कानूनों के प्रति विनयशीलता। ‘मुस्लिम' शब्द का अर्थ है ‘आज्ञाकारी' यानी वह व्यक्ति जो ईश्वर की इच्छाओं या आज्ञाओं (हुक्मों) के प्रति समर्पित हो चाहे उसकी भाषा, नस्ल, राष्ट्रीयता या जातीय पृष्ठभूमि कुछ भी हो। इस अर्थ का निहितार्थ भी किसी युग विशेष तक सीमित नहीं है। सभ्यता के इतिहास के किसी भी युग में अल्लाह (ईश्वर) और उसके आदेशों (हुक्मों) पर विश्वास करके जीने वाले लोगों को मुसलमान कहा जा सकता है। इस अर्थ में इस धरती पर आने वाले सबसे पहले इंसान और अल्लाह के सबसे पहले दूत, हज़रत आदम (अ.) इस्लाम के अनुयायी और प्रचारक थे, अर्थात एक मुसलमान थे। उनके और कुछ अन्य नबियों (ईशदूतों) के बारे में क़ुरआन यह कहता है:
اِنَّ اللهَ
اصۡطَفٰۤی اٰدَمَ وَ نُوۡحًا وَّ اٰلَ اِبۡرٰہِیۡمَ وَ اٰلَ عِمۡرٰنَ عَلَی الۡعٰلَمِیۡنَ ﴿آل
عمران: ۳۳﴾
“अल्लाह ने (हज़रत) आदम, (हज़रत) नूह, (हज़रत) इब्राहीम के ख़ानदान और इमरान के ख़ानदान को चुनकर तमाम जहानों (अर्थात दुनियावालों) पर फ़ज़ीलत (ऊँचा रुतबा और बड़ाई) दी थी।" [पवित्र क़ुरआन, सूरह आल-ए-‘इमरान 03:33]
ज़ाहिर तौर पर यह चयन पैग़म्बरी और लोगों के मार्गदर्शन के लिए ही था। जब अल्लाह (ईश्वर) ने पैग़म्बर आदम (अ.) को इस धरती पर भेजा, तो क़ुरआन के अनुसार उनसे यह फ़रमाया:
قُلۡنَا
اہۡبِطُوۡا مِنۡہَا جَمِیۡعًا ۚ فَاِمَّا
یَاۡتِیَنَّکُمۡ مِّنِّیۡ ہُدًی فَمَنۡ تَبِعَ ہُدَایَ فَلَا خَوۡفٌ
عَلَیۡہِمۡ وَ لَا هُمۡ یَحۡزَنُوۡنَ
﴿البقرة: ٣٨﴾
“हमने कहा: तुम सब यहाँ से उतर जाओ फिर जब मेरी तरफ़ से कोई हिदायत तुम्हारे पास पहुँचे तो (उसकी पैरवी करना क्योंकि) जो लोग मेरी उस हिदायत पर चलेंगे उन पर (क़यामत में) न कोई ख़ौफ होगा और न वे ग़मगीन होंगे।" [पवित्र क़ुरआन, सूरह अल-बक़रह 02:38]
क़ुरआन ने यह भी गवाही दी है कि प्रारंभ में लोग एक ही धर्म पर थे लेकिन आगे चलकर लोगों ने आपसी ज़िद एवं वैमनस्य के कारण अलग अलग रास्ते अपना लिये और अलग अलग धर्मों की बुनियाद डाल दी। क़ुरआन इस संदर्भ में कहता है:
کَانَ النَّاسُ اُمَّةً وَّاحِدَةً ۟ فَبَعَثَ اللهُ النَّبِیّٖنَ
مُبَشِّرِیۡنَ وَ مُنۡذِرِیۡنَ ۪ وَ اَنۡزَلَ مَعَہُمُ الۡکِتٰبَ بِالۡحَقِّ لِیَحۡکُمَ بَیۡنَ
النَّاسِ فِیۡمَا اخۡتَلَفُوۡا فِیۡهِ ؕ وَ مَا اخۡتَلَفَ فِیۡهِ اِلَّا
الَّذِیۡنَ اُوۡتُوۡہُ مِنۡۢ بَعۡدِ مَا جَآءَتۡہُمُ الۡبَیِّنٰتُ بَغۡیًۢا
بَیۡنَہُمۡ ۚ فَہَدَی اللهُ الَّذِیۡنَ اٰمَنُوۡا لِمَا اخۡتَلَفُوۡا فِیۡهِ مِنَ
الۡحَقِّ بِاِذۡنِهِ ؕ وَ اللهُ یَہۡدِیۡ
مَنۡ یَّشَآءُ اِلٰی صِرَاطٍ
مُّسۡتَقِیۡمٍ ﴿البقرة : ٢١٣﴾
“(शुरू में) सारे इंसान एक ही उम्मत (अर्थात एक ही दीन के मानने और पैरवी करने वाले) थे। फिर (जब उनमें मतभेद और विवाद हुआ तो) अल्लाह ने नबियों को भेजा जो (हक़ वालों को) ख़ुशख़बरी सुनाते और (बातिल वालों को) डराते थे, और उनके साथ हक़ पर आधारित किताब नाज़िल की, ताकि वह लोगों के बीच उन बातों का फ़ैसला करें जिनमें उनका इख़्तिलाफ़ (विवाद) था। और (अफ़सोस की बात यह है कि) किसी और ने नहीं बल्कि ख़ुद उन्होंने जिनको वह किताब दी गई थी, स्पष्ट और रौशन दलीलें आ जाने के बाद भी, सिर्फ़ आपसी ज़िद (वैमनस्य) की वजह से उसी (किताब) में झगड़ा और विवाद निकाल लिया। फिर जो लोग ईमान ले आए, अल्लाह ने उन्हें अपने इज़्न (हुक्म) से हक़ का रास्ता दिखा दिया जिसमें लोगों ने इख़्तिलाफ़ (विवाद) किया था, और अल्लाह जिसे चाहता है सीधा रास्ता दिखा देता है।" [पवित्र क़ुरआन, सूरह अल-बक़रह 02: 213]
यदि हम उपरोक्त सभी तथ्यों पर विचार करें, तो यह मान्यता बिल्कुल स्पष्ट हो जाती है कि मूल धर्म हमेशा एक ही रहा है, यानी 'इस्लाम' जिसका इतिहास पैग़म्बर हज़रत आदम (अ.) से जा मिलता है। इस कारण से, इस्लाम को वास्तविक सनातन धर्म (जिसका अर्थ है "शाश्वत धर्म" या "प्राकृतिक धर्म") कहा जा सकता है। अरबी भाषा में सनातन धर्म के लिए शब्द दीन-ए-क़य्यिम (دين القيم) है जिसका अर्थ है “स्थापित धर्म”, “सार्वकालिक धर्म” या “शाश्वत धर्म"। क़ुरआन ने इस शब्द का प्रयोग सूरह अल-बय्यिनह 98, आयत नंबर 05 में किया है।
وَ مَاۤ اُمِرُوۡۤا اِلَّا لِیَعۡبُدُوا اللهَ
مُخۡلِصِیۡنَ لَهُ الدِّیۡنَ ۬ ۙ حُنَفَآءَ وَ یُقِیۡمُوا الصَّلٰوةَ وَ یُؤۡتُوا الزَّکٰوةَ وَ ذٰلِکَ دِیۡنُ
الۡقَیِّمَةِ ؕ ﴿البینة: ٥﴾
“और उन्हें इसके सिवा कोई और हुक्म नहीं दिया गया था कि वे अल्लाह की इबादत इस तरह करें कि दीन (धर्म) को बिल्कुल यक्सू होकर सिर्फ़ उसी के लिये ख़ालिस (विशुद्ध) रखें, और नमाज़ क़ायम करें, और ज़कात अदा करें, और यही (अल्लाह का) स्थापित दीन (धर्म) है।" [पवित्र क़ुरआन, सूरह अल-बय्यिनह 98: 05]
पैग़म्बर मुहम्मद (स.अ.व.) ने इस्लाम को "दीन-ए-फ़ितरत" के रूप में भी वर्णित किया है जिसका अर्थ है “प्राकृतिक धर्म" या “सनातन धर्म”। [सही अल-बुख़ारी, हदीस संख्या 1358, 1359, 4775 आदि]
यह निष्कर्ष कि अल्लाह (ईश्वर) का दीन (धर्म) सदैव एक ही रहा है, इस तथ्य के प्रकाश में भी समझा जा सकता है कि सभी धर्मग्रंथों में चाहे उनकी भाषा और उत्पत्ति का स्थान जो भी हो, बुनियादी आस्थाएँ, नैतिकता के मानदंड, शिक्षाएँ और धर्मशास्त्र के मौलिक सिद्धांत लगभग एक समान परिलक्षित होते हैं। बेशक शरी'आ (धार्मिक क़ानून या ईश्वरीय संविधान) में कुछ भिन्नताएँ रही हैं, लेकिन केवल बदलती सामाजिक व्यवस्था की आवश्यकताओं के अनुरूप। यही कारण है कि क़ुरआन हमें ईश्वर की ओर से अवतरित सभी पुस्तकों पर विश्वास रखने का निर्देश देता है। यह हमें ईश्वर के सभी दूतों (पैग़म्बरों) पर विश्वास रखने का भी निर्देश देता है।
उपरोक्त तथ्यों के बावजूद लोगों ने धर्म को लेकर आपस में विवाद किया जिसका सिलसिला अब तक जारी है। जैसा कि ऊपर उद्धृत सूरह आल-ए-‘इमरान 03: आयत नंबर 19 और सूरह अल-बक़रह 02: आयत नंबर 213 में दर्शाया गया है, पूर्व के पैग़म्बरों के अनुयायियों ने उनके इस दुनिया से गुज़र जाने के बाद आपसी द्वेष और ईर्ष्या के कारण उपरोक्त तथ्यों को विकृत कर दिया, अलग अलग रास्ते अपना लिये और धर्म का अपने अपने हिसाब से स्वयं नामकरण कर दिया जैसे यहूदी धर्म, ईसाई धर्म आदि। पवित्र क़ुरआन ईश्वर की अंतिम अवतरित पुस्तक होने के कारण और पैग़म्बर मुहम्मद स.अ.व. की शिक्षाएँ उनके ईश्वर के अंतिम दूत होने के कारण अब इस्लाम (ईश्वरीय “शाश्वत धर्म") के नवीनतम एवं
पूर्ण रूप का प्रतिनिधित्व करती हैं। अतः अब उनके अनुसरण में ही इस जीवन और इसके बाद के जीवन (अर्थात आख़िरत) में मानवता की सफलता निहित है।
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